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Nand Kumar

Abstract

4  

Nand Kumar

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भीष्म प्रतिज्ञा

भीष्म प्रतिज्ञा

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कण्ठ वास वागेश्वरि, संकट हर हनुमान।

विघ्न हरण गणपति करहु,कृपा दास निज जानि।।

मंगल मूर्ति महेश जय, आदि शक्ति गुणधाम।

करहु मनोरथ पूर्ण मम्,सीय सहित श्री राम।।


पुरी हस्तिना परम सुहावन,

करहिं राज तहं शान्तनु राजन।

महावीर अति भट विख्याता,

धर्म धुरंधर जन सुख दाता।


नारि रूप तिन गंगा व्याही,

पाइ भूप सुख मन हरषाही।

गंगा जो निज सुत उपजावै,

ताहि धार निज कर पहुचावै।


जब अस भेद भूपवर जाना,

करिहौ शिशु रक्षा अनुमाना।

जन्म देवव्रत कर जब भयऊ,

तुरतहि सुत शान्तनु लै लयऊ।


नृप से गंगा क्रोधित भयी,

तजि तन नारि धार ह्वै गयी।

तिन कर विरह भूप अकुलाई,

निशि दिन नैनन नीर बहाई।


दुखित गात सुरसरि तट जाई,

आवै तहं कछु समय बिताई।

कछुक दिवस बीते एहि भांती,

लखि सुत भूपति विरह निपाती।


एक बार गंगा तट पाही,

जहं प्रतिदिन वह विचरण जाही।

तह कन्या एक लखी मनोहर,

भयउ वास तेहि भूपति के उर।


करै विचार भूप मन माहीं,

केहि प्रकार एहि को हम पाही।

धरि धीरज गवने तेहि पासा,

प्रेम विवश हिय अधिक हुलासा।


निकट जाइ तब भूप बताबा,

हमहि दास तव रूप बनावा।

केहि कर सुता कहां तव बासा,

आयहु तुम ढिग लै कछु आशा।


दाशराज मम तात है,सत्यवती मम नाम।

गंगा तट पर झोपड़ी, राजन मेरा धाम।।

निम्न जाति की मै सुता, आप उच्च कुल भूप।

कहां आप सागर सरिस, मै एक छिछला कूप।।


सागर मिले सरित हम जाना,

कूप मिलहि अस सुनेउ न काना।

कहा भूप जो सुनेउ न काना, 

सोई करो आज हम ठाना।


करि तव वरण तुमहि अपनाई,

वर्ण भेद मेटहुं मै आई।

आइ भवन मंत्रिन नृप भाषा, 

पुरवहु सकल मोर अभिलाषा।


दाशराज के ढिग तुम जाई, 

मम संदेश सुनावहु जाई।

देखि सुता तव भूप लुभाने,

निशि वासर सो नहि कछु जाने।


भूपति से तेहि परिणय करहू, 

एहि मा अब विलम्ब नहि करहू।

दूत तबहि सुरसरि तट आवा, 

दाशराज को हांक लगाया।


दाशराज गृह बाहर आवा,

मुख मलीन उर भय उपजावा।

कह कर जोरि कहेउ सब बाता, 

केहि कारज तुम आयहु भ्राता।


शान्तनु भूप काज मै आवा, 

तिन ही तुम पहि मोहि पठावा।

सत्यवती तव तनया अहई,

रूप शील गुण वरणि न जाई।


सो भुवाल कर चित्त चुरावा, 

नृप विवाह कारज मै आवा।

तनया कर उनके कर देहु, 

सब बिधि सुगम पाव नृप नेहू।


जो नृप का मन्तव्य यह, तो न मुझे एतराज।

शर्त एक है किन्तु जो, पूर्ण करे महाराज।।

सत्यवती सुत हो युवराजा,

पूरण शर्त करहि महाराजा।


तवहि भूप से परिणय होई, 

बिनु अस भये सुता नहि वरई।

अस सुनि दूत महल को आवा, 

सब वृतांत नरपतिहि सुनावा।


कहेउ निषाद सुनहु भूपाला, 

हो युवराज सत्यवती लाला।

सुनी श्रवण जब अनुचित बाता, 

विकल ह्रदय कम्पित सब गाता।


दाशराज नहि ह्रदय विचारा, 

निज हित लगि पर अहित उचारा।

निज दुहिता स्वारथ के हेतू, 

 राखि शर्त कर मोर अहेतू।


मानि बात तेहि सुता जो पावौ, 

निज हित लगि पितु धर्म नसावौ।

अस विचार मोरे मन आवै, 

निज अधिकार देवव्रत पावै


अस विचारि तजि भूपति आशा, 

प्रेम विकल नित रहै उदासा।

देखि म्लान मुख जनक का, सुत ने किया विचार।

पितु कर दुख मेटौ तबहि, जीवन सफल हमार।।


मंत्री पहि तव जाइ कुमारा, 

निज मुख से अस वचन उचारा।

केहि कारण है जनक उदासा, 

करब काज जेहि होई हुलासा।


बोला सचिव सुनहु मम बाता, 

तब भविष्य लगि भूप उदासा।

दाशराज की सुता मनोहर, 

भयउ वास तेहि भूपति के उर।


तुम्हरे काज वरै नहि तेही, 

भूलि न सकत ह्रदय दुख तेही।

दाशराज एक शर्त लगाई,

भयी सोइ दारुण दुख दाई।

 

सत्यवती सुत करि युवराजा,

वरन चहत तेहि नहि अब राजा।

सुनि गंगा सुत के मन आवा, 

पितु दुख हरइ सो पुत्र कहावा।


औरों के सुख के लिए,निज सुख दे वलिहार।

वह ही है सच्चा मनुज, जो करता उपकार।।

अस अनुमानि कुंवर तहं आए, 

दाशराज जहं सदन बनाए।


दाशराज से कह कर जोरी, 

 सुनहु आप कछु विनती मोरी।

मातु सत्यवती केर कुमारा, 

हो युवराज है वचन हमारा।


राज चाह नहि मन में लावौ, 

जननी जनक चरण सुख पावौ।

मोहि विश्वास बचन तव होई, 

तव सुत करै का जान न कोई।


जो संशय कछु चित्त तुम्हारे,

तौ हम रहहु अजन्म कुंवारे।

अक्ष उघारि न देखौ वनिता, 

आस हमार करहु अब फलिता।


जब वृतांत यह शान्तनु जाना, 

ह्रदय फटेउ मन अति अकुलाना।

गंगा सुत को निकट बुलाई,

कहा पुत्र का कीन्हेउ जाई।


तुम भर्ता हस्तिनपुर केरे, 

करहु काज सुत मन से मेरे।

तुम से अधिक मोहि प्रिय नाही, 

जीव चराचर जे जग अहही।


तुमहि मोर जीवन अरु आशा,

मनहु बचन न करहु निराशा।

सुनहु तात कह राजकुमारा, 

देखि जाइ नहि शोक तुम्हारा।


तव हित कारण कीन्ह प्रतिज्ञा, 

तजि तेहि अव न कराव अवज्ञा।

चाहे जलचर छोङ जल, नभ मे करे निवास।

करो प्रतिज्ञा भंग की, पितृ न मुझ से आस।।


गंगा सुत के बचन सुनि, उपजा दुःख अपार।

होता है पर वही जो, करता है करतार।।


कठिन प्रतिज्ञा की तभी, कहलाए वह भीष्म।

जीवन भर कुल हित किया, हो वर्षा या ग्रीष्म।।


नारायण के भक्त अरु, गंगा के सुत वीर।

कृपा आपनी कीजिए, प्रमुदित रहे शरीर।।


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