मेरा ग़म भी कितना पागल है
मेरा ग़म भी कितना पागल है
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मेरा ग़म भी कितना पागल है
इस पागल से रुठे तक न
दिल में है ज़ख़्म बने जितने
इस घायल से रूठे तक न।।
बागों में जब भी है जाता
तेरी यादों में खोया रहता
चंचल हिरनी हरती मन को
इस हिरनी से रोया करता
ये आंसू कितने कायल हैं
इस कायल से रूठे तक न।।
ख़त तेरा मिटा नहीं अब तक
ये है ये दुनिया है जब तक
मुस्कान पे ये दिल हार गया
इस तन से दिल ये पार गया
ये दिल भी कितना आकल है
इस आकल से रूठे तक न।।
जब जब आता हूं राहों में
लगता हूं तेरी बाहों में
जब हवा बहे खुश्बू आती
आहट आने की है लगती
बचैनी कितनी चंचल है
अचंचल से रूठे तक न।।