सीप
सीप
वहां पर सूरज नहीं डूबा था
जहां शशि हुआ
शून्य नहीं था हृदय
हा प्रणय।।
लुपलुपा रही थी दीप ज्योति
वह ऊपरी दीप जलाता है
दोनों के प्रकाश में
रमता रहा सीप ।।
घनघोर निशाई थी
हृदय में कमल खेला
एक नहीं निकला था भृंग
और ऊपर मिला।।
जल समतल कोमल
थल पर बहते रहे
आश्चर्य हा वह दर्द
नयन कैसे सहे।।
कैसे दो दिशा-निर्देश
क्षितिज स्मृति करता है
कैसे सागर नदिया से
बादल जल भरता।।