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Madhavi Solanki

Abstract

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Madhavi Solanki

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कहीं में अब खोने लगी हूँ ...

कहीं में अब खोने लगी हूँ ...

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कहीं मैं अब खोने लगी हूँ ...सही राह पर अब चलने लगी हूं 

कहीं मैं अब जीने लगी हूं , सारे मुश्किलों से डट कर अब लड़ने लगी हूं 

कहीं मैं अब नए ख़वाब देखने लगी हूं , उन ख़वाब को हकीकत बनाने ! अब मैं चलने लगी हूं 

कहीं अब मैं सोच मैं बदलाव लाने लगी हूं , सही सोच के साथ जिंदगी बहेतर बनाने लगी हूं 

कहीं अब मैं मनचली बनने लगी हूं , दिमाग़ की जगह अब दिल की बात सुन कर जिंदगी गुलज़ार बनाने लगी हूं 

कहीं ना कहीं लोग अब कहने लगे है कि तुम बदलने लगी हूं , मेने कहाँ सही मैं अब जिंदगी को मैं समझ ने लगी हूं 

कहीं मैं अब खोने लगी हूं , सबका अच्छा तो करना ही है पर खुद का आशियाना भी बनाने लगी हूं 

कहते है लो तुम हमसे दूर हो रही , मेरी कलम ने कहाँ अब माधुरी इश पन्नों की कहानी बन रही है 

कही मैं अब गुलाब की तरह खिलने लगी हूं , क्योंकि जिंदगी को खुलकर मैं अब जीने लगी हूं , नई जिंदगी से रुबरु होने लगी हूं 

कहीं अब मैं जीने लगी हूं , जिंदगी के सारे लम्हों मैं खोने लगी हूं , जिंदगी के सारे रंगो मैं गुल ने लगी हूं ,जिंदगी की हर बारिश मैं अब मिलने लगी हूं ,जिंदगी की हर आग मैं अब जलने लगी हूं , जिंदगी की हर किताब मैं अब पढ़ ने लगी हूं 

जिंदगी मैं ! अब मैं  खोने लगी हूं , एक ऐल्बाट्रॉस बनके अपने ऐल्बाट्रॉस की खोज मैं अब मैं उड़ने लगी हूं , मैं अब खुले आसमान मैं खोने लगी हूं ......


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