STORYMIRROR

Swaraangi Sane

Abstract

4  

Swaraangi Sane

Abstract

पृथ्वी

पृथ्वी

1 min
414


बसंत मना रही होती है पृथ्वी

और मौसम कह देता है,

उकता गया हूँ मैं तुमसे;

उमस भर जाती है रिश्तों में,

पतझड़ आ जाता है,

पथरा जातीं हैं धरती की आँखें,

उसके होठों पर पपड़ी जम जाती हैI

शून्य हो जाती है वह

जोगन हो जाती है धरती,

वीरानी छा जाती है।


मौसम 

कभी नहीं लौटता

बारिश बनकर,

और वह

इस आस में ही होती है कि

कोई सहेज लेगा उसे दोनों हाथों से

पर

सच तो यह है कि

खत्म होने लगती है 

पृथ्वी

भीतर ही भीतर हाहाकार करते हुए।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract