पृथ्वी
पृथ्वी
बसंत मना रही होती है पृथ्वी
और मौसम कह देता है,
उकता गया हूँ मैं तुमसे;
उमस भर जाती है रिश्तों में,
पतझड़ आ जाता है,
पथरा जातीं हैं धरती की आँखें,
उसके होठों पर पपड़ी जम जाती हैI
शून्य हो जाती है वह
जोगन हो जाती है धरती,
वीरानी छा जाती है।
मौसम
कभी नहीं लौटता
बारिश बनकर,
और वह
इस आस में ही होती है कि
कोई सहेज लेगा उसे दोनों हाथों से
पर
सच तो यह है कि
खत्म होने लगती है
पृथ्वी
भीतर ही भीतर हाहाकार करते हुए।