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पाथेय

पाथेय

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‘जाना तो सभी को पड़ता है !

’झूलाघर में छोड़ती है माँ

और यही कहती है

‘बेटी जाना ही पड़ेगा,

तुम्हें यहाँ और मुझे ऑफ़िस।


स्कूल न जाने के

कितने ही बहाने कर लें

चकमा नहीं दे पाते

चश्मे के भीतर से झाँकते

पिता को स्कूल भी जाना

ज़रूरी-सा हो जाता है।


सहेलियों के साथ

कच्ची कैरी तोड़ने भी जाते हैं

और कई सालों बाद कभी

उन दिनों की बाट भी जोहने लगते हैं

जब मँगवानी पड़ जाती है

खट्

टी इमली बाज़ार से।


बेटी को विदा करते समय भी

यही समझाते हैं न कि

‘जाना तो सभी को पड़ता है !’


फिर आज क्यों दुविधा है ?

कच्ची कैरी, खट्टी इमली

के स्वाद याद आ रहे हैं

और दवा कसैली लग रही है

अब तुम्हें समझाने वाले नहीं बचे शेष

क्या इसलिए थरथरा रहे हैं हाथ

साथ छोड़ने से पहले ?


पर सच में

रास्ता घर से जाता हो

या वृद्धाश्रम से पर

‘जाना तो सभी को पड़ता है !’

एक पाथेय

सबके जीवन के बाद होता ही है।


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