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Prafulla Kumar Tripathi

Abstract

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Prafulla Kumar Tripathi

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सावन का आवाहन !

सावन का आवाहन !

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सावन के इस आवाहन को

कैसे मैं ठुकरा दूँ प्रियतम !

आओ और निकट तुम आओ

एक बनें दोनों के तन-मन।


ठंढी हवा के झोंके कहते

प्रियतम बिन तुम कैसे रहते

मेघ गरजते नीर बरसते

बादल कड़केबिजुली चमके।


इन्द्रधनुष के आकर्षण को

कैसे मैं ठुकरा दूँ प्रियतम

बरसों से गूंगी थी कोयल

अब गाती इतराती चंचल

बिरही मन बरसों से घायल

खनक उठी हो मानो पायल


पेड़ों के झूलों के सुख को

कैसे मैं ठुकरा दूँ प्रियतम

बरसो मेघा और भी बरसो

चमको बिजुरी और भी चमको

तपती धरती की पीड़ा को

सुख के कुछ आयाम नए दो


मेंहदी सजे तेरे हाथों को

कैसे मैं ठुकरा दूँ प्रियतम

चहक उठी है सभी दिशाएं

शांत हो चुकी सभी व्यथाएं

प्रेम पौध पाता यह जीवन

अबकी लौट ना जाना सावन


कामदेव के आमन्त्रण को

कैसे मैं ठुकरा दूँ प्रियतम।


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