मनमानी !
मनमानी !
मन कहता कुछ और है,
तन करता कुछ और।
पागल हो मैं घूमता,
लगे कहां पे ठौर।।
तन कहता कुछ मीठा खा लूं,
मन कहता परहेज करो।
तन - मन की यह अजब केमेस्ट्री,
कोई आओ साल्व करो।।
तन जब तन से जुड़ना चाहे,
प्रियतम को वह पास बुलाए।
मन एकीकृत होना चाहे,
प्रियतम नखरे रोज दिखाए।।
नयन इधर उधर जब देखें,
मन उसको हर बार समेटे।
तन से मन फिर तिरछे देखे,
मन को वह हर बार लपेटे।।
कुछ ही हैं सौभाग्य के स्वामी,
तन, मन, धन के औघड़ दानी।
नहीं गुजरता सिर से पानी,
कर ही लेते वे मनमानी।।