स्वाद, अलग सा!
स्वाद, अलग सा!
रास्ते में इक हसीना ने ,
जगाए ख़्वाब कुछ।
भावनाएं ही सही,
मन को मिला है अपार सुख।।
वह कहीं की और थी,
और मैं कहीं से और था।
अपनी - अपनी बन्दिशों का,
दायरों पर ज़ोर था।।
सात फेरों से नहीं है,
सुख की सब गारंटियां।
वासना उन्माद में है ,
प्यार की ऊंचाइयां।।
देह का कुछ धर्म है
और मन का अपना मर्म है।
मिलन सुख की पराकाष्ठा,
यौन सुख का कर्म है।।
अब झिझक छोड़ो प्रिये तुम,
प्रेम की पाती लिखो।
काम के आयाम के तुम,
स्वाद नित नूतन चखो।।