हमसफ़र
हमसफ़र
वह चाँद सितारों के ख़यालों में रहनेवाला और मैं जमीं पर अदद छत की चाह रखनेवाली…
वह तितलियों के खूबसूरत पंखों के पीछे भागनेवाला और मैं रंगबिरंगी फूलों को सींचने वाली…
वह वक़्त को पकड़कर रखना चाहता था और मैं वक़्त की बयार में बहना चाहती थी …
वह कहानियाँ कहता था…मैं कहानियाँ सुनती थी…
उसे व्हाईट कलर पसंद था और मुझे ब्लैक…
उसे तेज़ म्यूजिक पसंद था और मुझे गज़ल्स…
हम दोनों बेहद मुख़्तलिफ़ ख़यालात के थे जैसे उत्तर दक्षिण...
बावज़ूद मुख़्तलिफ़ ख़यालात के कुछ बातें हम दोनों में कॉमन थी…
जैसे की किताबें पढ़ना, मूवी देखना और साथ साथ घूमना फिरना…
लेकिन ज़िंदगी भला इतनी आसान तो नहीं हुआ करती है?
न जाने क्यों हमारे दरमियान बात न बन सकी...
शायद नियति को यही मंज़ूर था...
आज न जाने क्यों यह बातें मुझे बेहद याद आ रही है...
कही रिश्तों में आये खोखले पन से यह दरार उजागर तो नहीं हो रही?
शायद जिंदगी ही शुरू हुयी थी खोखले रिश्तें से?
नए रिश्तें में सबकुछ तो नया होता है…
कोई क्या कह सकता है? और किसे आईडिया होता है?
औरतें अपनी राय ज़ाहिर करे?
औरतों को अपनी राय जाहिर करने का हक़ है भला?
आजकल क्यों मुझे मेरा हमसफ़र मुझे कंट्रोल करता सा लगने लगा है?
जबकि पहले उसका मुझे यूँ बंधन में बाँधने में यकीन था...
क्यों मुझे अब उसकी हर हरकत रोकती टोकती सी लगती है?
जबकि उसकी वह हरकत शायद मुझे थामने की ही रही होगी...
मेरा मन बार बार मुझे क्यों कह रहा है ओल्ड इज गोल्ड?
क्यों आज मुझे पुरानी किताबें और पुराने दोस्त अच्छे लगने लगे हैं?
कोई कह रहा था की औरतों के मन की थाह पाना आसान नहीं होता है....
औरत अपने मन को किसी तालें में बंद कर चाबी कही दूर फेंक देती है कभी न मिलने के लिए..
क्या वह सच कह रहा था?
जिंदगी सच झूठ के फेर में नहीं पड़ती है...
जिंदगी में सब सच होता है....
या फिर जिंदगी में सब झूठ होता है सच के मुलम्मे में...
हाँ, कभी दोस्त हमसफ़र बन जाता है..
और कई बार तो हमसफ़र ही दोस्त बन जाता है…