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समर्पण

समर्पण

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सुनो सजनी 

तनिक करीब आओ

धूप की चादर समेटे शाम सजने को है

हया को हटा के जरा पहलूं में बैठो..

साँसों की मद्धम बहती लय संग 

जज़बात पिघल जाए


रुपहली कूँजें जब थककर

गुलमोहर की टहनी पे बैठ जाएँ 

नीड़ में पंछी दुबक कर बैठ जाए

तब तुम अपनी पलकों की झालर 

ज़ुका लेना तो शाम ढल जाए


शाम के साये में कुछ वादें कर ले

रोज़ मिलन के इरादे कर लें 

फिर हौले से नैनों के चिरागों को खोलो

शमाएँ जल जाए


जरा सरका लो हया का

आँचल वदन से तो रात रंगीन ढल जाए

मैं हौले से हटाकर आँचल 

तुम्हारे ठंडे ठंडे पंखुड़ियों से लब पर

अपनी पलकों को सजा दूँगा 


आओ मेरे काँधों पे बिखरा दो

जु़ल्फों की स्याही रात संगीन हो जाएँ 

तुम्हारे बादामी गालों को सहलाते

रात को सुनाएंगे हम दास्तान प्यार की,


और तुम्हारी अलक लटों को

सुलझाते सुनाएँगे

कहानी उस सूकुन की चरम की

जो मिलती है आकर आगोश में 

एक दूजे की


आओ चाँद के पहलू में बैठकर

रात को गवाह बना कर

तुम सौंप दो अपना तन-मन मुझको 

मैं ग्रह लूँ तुम्हारा समर्पण।


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