शून्य थी मैं
शून्य थी मैं
"शून्य थी मैं सौ कर दिया गुरु की ऊँगली क्या थामी जीवन धन्य बन गया"
मुलाकात हुई अक्षरों से, पंक्तियों से प्यार हुआ,
बिन गुरुवर शिला थी साक्षात्कार होते ही साकार हुई...
मैं उम्मीद थी, गुरु आशा मैं कोरा कागज़ थी,
गुरु शब्द कोष थे, सीधी सी लकीर थी ज़िंदगी गुरु आशीष पाकर अलंकार हुई...
कथिर थी शब्दहीन, ज्ञानविहीन गौहर समान गुरु के सानिध्य में तपकर झिलमिलाता कुंदन बनी...
खाली घड़े सी बजती थी, न स्याही से संबंध था न कलम की कस्तूरी चखी,
गुरु के दिखाए पथ चलकर नखशिख संपन्न हुई...
एक अबूध नाम का अक्षर थी, ज्ञान की गंगा से विमुख थी,
शिक्षा पाकर गुरुवर से आज पूरी किताब हुई।