कहाँ कुछ ज़्यादा मांगा
कहाँ कुछ ज़्यादा मांगा
#ज़्यादा विस्तृत नहीं जहाँ मेरा,
तुम्हारे हिया की चौखट मेरे वजूद का बसेरा..
पर्वत के शीर्ष से #उद्भव होती सरिता को गवाह रखकर,
तुम्हें फूल देने वाली उस घटना की कसम,
#मेरी प्रीत का दर्पण तुम्हारी आँखें है।
सहज लो मुझे #ख़्वाबगाह की संदूक में और पलकों का पहरा लगा दो,
सपना बन तुम्हारी #पुतलियों में झिलमिलाते रहना चाहती हूँ।
#हठात नहीं! समर्पित है हर साँसों का डेरा, बिछ जाना चाहती है धड़क तुम्हारी आरज़ू बन यूँ, #फ़ैल जाता है झील के पाटों पर चाँदनी का नूर ज्यूँ..
#करीब आ अपने एहसासों के हर रंग से तुम्हारी #
हथेलियों पर रंगोली रचूँ.. नखशिख तुम्हारी अदाओं में इठलाती ढ़लना चाहती हूँ।
#उम्मीदों की चरम इतनी सी छुए मेरी ही नज़रें तुम्हें और किसीको छूने न दूँ.. तुम्हारे उर के #भवन पर एकचक्री शासन करते ही मेरी उम्र बीते.
#कहाँ कुछ ज़्यादा मांगा?
नखरों को तुम्हें सौंप इतराते #राजसी ठाट ही तो चाहती हूँ।