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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Romance

5  

सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Romance

अगर साथ होते तुम हमारे

अगर साथ होते तुम हमारे

2 mins
510



सुखी सुंदर होता जीवन 

इक दूसरे के आलिंगन

रहते भुलाये दु:ख अपने 

कितना सुंदर होता अपना जीवन।  


रहते इक – दूसरे की आँखों में

उर मिलने को पल-पल मचलता

इक-दूसरे में खो जाते श्वांस हमारे

हँसते चेहरे की हमारी चंचलता।


भोर की धूमिल आहट पर

स्वर अकुलाते अधरों पर

चढ़ती किरणों की आभा में

अलसाये पड़े रहते बिस्तर पर। 


प्रीति रजनी जगाने लगती

सुर्ख छुअन होती तन-मन में

मचलती बाँहे भरने को

कितना सुंदर होता अपना जीवन। 


बल खाती आतुरताऐं

उनींदी-उनींदी-सी चाहों में

बिखेरती रंग इंद्रधनुषी-सा

अधरों से फूटी आहों में। 


धवल चाँदनी और अमावस

मुग्धित मदहोश होती जाती

भरी उल्लासित स्वप्नलोक-सी

स्वप्निल प्राणों में फिर खो जाती।


पल भर में खो जाता यौवन

खोया-खोया रहता ये जीवन

उन्मादित हो तपता कानन

कितना सुंदर होता अपना जीवन। 


कभी तुम रूठते हम मनाते

जगा-जगाकर तुम्हें सताते

अधरों की मादकता को तेरे

ले अधरों पर हम पी जाते। 


प्रीति जागती हम तुम्हें जगाते

मीठी नींद हमें फिर मिल जाती

निढाल-सी बाहुपाशों में

थकी – थकी फिर तुम सो जाती। 


दृगंचलों में खिल-खिल जाते मधुवन

होता कितना अपना सुंदर जीवन

पल भर को भी न रह पाते छिन 

कितना सुंदर होता अपना जीवन। 


बेसुध होती अभिलाषायें

शयनित होती बेलायें बाँहों में

परिमिलित किरणें हँसती

आमोदित तृप्त भावना जीवन में। 


शीतल-शीतल मलय पवन के झोंके

तन-मन को और पिपासित कर जाते

लिपटी वल्लरी तरुवर आलिंगन में

तृष्णा दोनों में भर-भर जाते। 


पल-पल पिघलता यौवन

होता कितना सुंदर जीवन

क्षुधा समाती अन्तर्मन

कितना सुंदर होता अपना जीवन। 


छलके तनुसर लिलार हमारे

भिगोती पोंछ अपना आँचर

रची बसी हथेलियों आँगुर से

छूकर मदहोश करती साँचर। 


जलते जीवन की पिपासाओं को

आमंत्रित करती मेरी क्षुधाओं को

तृषित उर को तृप्त करती सावन

होता अगर साथ हमारा ये जीवन। 


बड़े लंबे हो जाते ये दिन

घड़ी-घड़ी छोटी होती रातें

अधीर हो लुक-छिपकर

इक दो पल में ही खो जाते दिन। 


विकलता उन्मादित होती

पा निशा-निमंत्रण का दीवानापन

आतुरता अभिलाषा बनती

क्षण-प्रतिक्षण हो जाते विकल अंतर्मन। 


मोहित करती पावन पवित्र तन

रूप सलोना मन के आँगन

मनभावन जीवन आशा मुग्धित

कितना सुंदर होता अपना जीवन। 


तुम मेरी संबल बन जाती

मैं तुम्हारा होता विश्वास

गहन निराशा के धोमिल पल भी

न होते हमारे नजरों के पास। 


अभिषंङ्गित शिथिल उमंगों में

फिर; नई ऊर्जा भर देती

अभिनव कोमल अनंद जगाकर

कठोर संकल्प जागृत कर देती। 


हँस-हँसकर देती उलाहन पल-पल

ये ज़िन्दगी हर पल हर-क्षण

मुस्कुरा – मुस्कुरा देता अपनापन

कितना सुंदर होता अपना जीवन। 


रति-कामदेव की क्रीड़ाओं में

डूबे रहते हम दोनों आगातें 

दे देती हमको आजादी गठबंधन

भावी जीवन की सौगातें। 


इंद्रधनुषी नवल विहानों के

बैठ तुम नव-नव सपन बुनती

आने वाली पदचापों से

आकुल उत्कंठा चुनती। 


दिन बीत रहे उन्मन – उन्मन

प्यासा-प्यासा सा अपना मन

जगी कामना का निर्झर वन

कितना सुंदर होता अपना जीवन। 


ज्योत्स्ना-सी तुम जलाती पावन

अस्त अदित घर आँगन में

गोपुर बैठ प्रतीक्षा करती

आस लगाये अरुण नयन में। 


ढूँढ़ती नजर व्याकुल हो

हर आने वाले पथ निहारती

रजकण भरे मेरे पैंरों को

तुम धुलती और पखारती। 


अँखियों में भर समर्पण

चाहत की बाती भर -भर

फिर खिलते पलकों पर मधुवन

कितना सुंदर होता अपना जीवन। 


मस्त मनोहर आलंभन

मुग्धित होती थकन हमारी

चरणों को धोकर हर्षित होती

कल्याणमयी प्रीति हमारी। 


फिर बना लाती तुम मेरे लिये

उपली की सोंधी-सोंधी लिटियाँ

जीवन की हर इक गुत्थी

सुलझने लगती बताकर तिथियाँ। 


महकने लगते पल – पल क्षण

गुदगुदा जाते मन अंतर्मन

घर चौखट बनती गोकुल वृंदावन

कितना सुंदर होता अपना जीवन। 


 


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