गीतों का हार
गीतों का हार
सप्त रंगों से सजी धरती के
कण-कण में गीतों का हार
सात सुरों के तानों में बजता
विहंगिणी विक्षोभ का तार।
सप्त दिवसों की सजी चौक पर
चंद्र रजनी का सुंदर गात
साँझ सकारी सज कर खोली
स्वप्न सुनहली गुलाबों की प्रात।
चरण-पाद धरने को पथ पर
फैला दिये हैं पुष्प-किरण के हार
विहान की सिंदूरी लालिमा ने
बिछा दिये हैं मेघ अपार।
कंठों की कोकिल में सजी
सुर लहरी की मधुर तान
धवल जूही की पहन चादर
मृदुल चाँदनी आई सान।
दूर्वा की तूलिका में बसी
नील गगन की घनसार
दो शरासर आँक लूंगा
भू-धरा पर हैं कितने गद्दार।
सुनने की शक्ति दो मुझको
देखूँ कितने पीत-कुसुम सुकुमार
पंखुड़ियों के दो वलय वृन्त मुझे
खोजूँ कितने श्वेत कलिका के हार।
स्वर्ण शिखा के माथे पर दो
तिलक कुंकुम चंदन के डाल
अरुण सारथी से पूँछ लूंगा
शंभुभूषण मामा के भाल।
छाई अँखियन में घटा काली
उर में प्रणय की प्यास
श्वांसों में भर दूंगा मलय समीर
अधरों पर पूर्ण उच्छवास।
चंद्र पर अब लहरायेगा झंडा
हृदय पर नागिन डोलेंगे
जो कहते थे पिछड़ा हमको
छाती पीट-पीटकर रोयेंगे।
बंकिम धन्वा पर चढ़ा दूँगा
कर कुसुम से तीर खींचूंगा
मदहोश यौवन की नागों पर
सुंदरता की जंजीर पहना दूँगा।
करुँगा सृजित कल्पित जग को
उसे बनाऊँगा तुम्हारा आवास
थोड़ी-सी धरती होगी
पूरा – पूरा होगा उसमें आकाश।
विचरता मन छानता रहता
स्वप्न निखिल संसार
कुछ-कुछ नया लाते
जिससे कर सकूँ तेरा श्रृंगार।
कुश के अंकुर कभी
बौरे सिंधुकेशर के फूल
कमल के पराग कभी
थोड़े-थोड़े केतकी के धूल।
उतरते सूरज की वधु
लाली लाज उपनाम
सिमटी चंद्रिका के अंकों में
सखी निशा को मान।
निहारती अपलक अपरिचित को
उर्वशी वल्लभ की ओर
दिव्य अप्सरा की अँखियों में
मादकता निहारे चक्षु कोर।