शब्द-माला
शब्द-माला
अभिनव रस परिरंभ से
थरथराते बाला के वेश
कंपकंपाते अधर पुट
उड़ते मदहोश से केश।
चूमकर अचानक अभ्र को
भाग जाना अति दूर
अनुपम है अणुभा का रूप
मंजुलता मोहकता से चूर।
अविनीश के हाथों का परस
पाकर व्याकुल कुछ-कुछ ऊब
मृणालिनी का जल में जाना
आकंठ तक डूब।
पुष्करिणी के तन किन्तु
मन रात-भर शशि में लीन
शशिकांत की आँखों में
अलस-हीन निद्रा-विहीन।
स्वप्न का योग सारा
प्राणों से सबको प्यार
धन-दौलत है पास मगर
निछावर कर दूँगा साकार।
विवस्त्र कर कुण्डल से
देखे विस्मित चरणों का देश
रहता जहाँ है बसा
अगुण मानक उज्ज्वल वेश।
इस पावन पवित्र नीलिमा के
धरा पर करूँगा तुझको मैं आसीन
उपवन में भी तुम रहोगी
अलि कंटक कुसुम विहीन।
अपने लहू के चंड से
सुलगने न दूँगा अंग
साथ रहोगी तुम पर
आँच न आने दूँगा नि:संग।
शब्दों की माला में पिरोकर
लिखता रहूँगा भाग्य अपना मान
तुम रहोगी इस अधिलोक में
बन सरगम की सुरीली तान।
मधुर मुरली की तान वह
जिसके प्राणवंत विभोर
डोलती काया तुम्हारी
मोहक मोहनी होगी तस्वीर।
लोहित की दुर्जय क्षुधा
दुःसह चाम की प्यास
छा रही होगी सुर-सरगम
घर-घर अवनी आकाश।
सुर तुम्हारे जब बजेंगे
ताल-तरंग चूमने की चाह
आह निकलेगी फिज़ाओं से
झूमने लगेंगे सब बाग।
करतल जब बजेगी
चलने लगेंगे आँसुओं के तार
बज उठेगी विश्व में जब
निश दिन बोलों की झंकार।
जग तुम्हें घेरकर
करेगा कलरव चहुँ ओर
फूलों का उपहार होगा
मनके-मनके में भरा प्यार।
कुछ दीवानगी में भर कर
भित्ति हृदय पर उकेर लेंगे
गीतों के भीतर घुसकर
तुम्हारी छवि आँखों में उतार लेंगे।
कंठों में जाकर बसोगी
बिन सरगम गुनगुना लेंगे
प्राणों में आकर हँसोगी
हँसकर होंठों पर छा लेंगे।
मैं मुदित हूँगा देखकर
इन गीतों को वाक्य दूँगा
रचित शब्द-माला में पिरोये
अपने सृजन को आकार दूँगा।