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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

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नटराजन

नटराजन

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करो नर्तन प्रलयंकर; तांडव विभूति बन आओ

सृष्टि में बसे अमानव को; अपना प्रचंड रूप दिखलाओ। 


अंड! अघोर! इंदु शेखर! आशुतोष! औघड़ दानी!

काशीनाथ! कपाली! उमेश! कुण्ड! अक्षमाली। 

आदि अनन्त अविगत अनादि ध्वनि देकर

करो नर्तन विनाशकारी; तांडव विभूति हे भोले भंडारी। 


गति कला आदित्य पुष्कर पुरातन

तरंग-रुधि कर; कमलन छा जाओ

लचक-लचक गर्जन-तर्जन थिरक-थिरक

करो नर्तन अभ्यंकर; तांडव विभूति हे हितकारी।


सुन सिंघासनी अचल निर्घोष प्राचीन

पुरातन सृष्टि उर में कर नवल स्पंदन

अचंभित नयन खोल कालनेत्र फिर

थर्राते अर्दित अनंग मन – ही – मन।


दो प्रलंक ध्वनि हे नगपति! कैलासी त्रिपुरारी; 

करो नर्तन जटाशंकर भस्मधारी; तांडव विभूति हे कंठ-विषधारी।


गतिमान बवंडर धरा शूल पर

अट्टहास कर उठे तुंग – गिरिवर 

धधक उठे अनल स्फोट हो ज्वालामुखी

घोष – गर्जन करे तरन्त – तीवर ।


ध्वस्त करो दुर्ग जड़ता की! अम्बरीष अस्थिमाली;

करो नर्तन त्र्यंबक त्रिपुरारी; तांडव विभूति हे गले-भुजंगधारी।


घहरें युगान्तक विहंग गगन में

अन्ध धूम्र हो आच्छा-दित भुवन में

उगले अनल चले प्रचंड झंझानिल

चित्कार आर्तनाद से भरा जग का आँचल। 


जीर्ण-शीर्ण अतल-वितल! लिथड़े उड़े नरलोक के

करो नर्तन नटवर; तांडव विभूति हे इष्टकर कल्याणकारी।


हे प्रभू! होगी तब धरणि पावन नील गगन

पदाक्रांत अपरिमित निबल निरीह दल

विनाशी राष्ट्र; वीरान होते अब चमन

आह! कर रही आज ऋजुता, निर्बलों का रक्तिम शोषण।


पूँछों आज कण-कण से, साक्ष्य निश्चय ही मिल जायेंगे

करो नर्तन शिव प्रलयंकर; तांडव विभूति हे अर्घेश्वर मंगलकारी।


नर्तन करो! नर्तन करो! प्रचंड प्रलयंकर

पाद-थापों में अग्निखंड का स्वर दो

अर्द्धनयन को खोलकर त्रिपुरारी

ज्वाला अंबर से फूँक दो ।


प्रजिन-प्राणान्त कोश में 

द्रुम – दल और जल – थल में

अधूत अभय विश्व के हृदय में

प्रचंड प्रलयंकर तांडव ज्वाल भर दो।


च्युत वैभव का अहं मिटाओ

भष्मित करो आडम्बर को

धन-वैभव के उच्चाभिमान से भरे

दंभित हुये विवेक संज्ञानी को।


अधिप महावात अनल बुला दो

जले विश्व के पाप क्षण भर में

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं

चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्

नर्तन करे नयन चहुँ ओर, प्रलयंक चक्षु को तरेरे।


कोना – कोना भष्मित हो जहां 

संसृति में बसे पापी अधम

धूल रज कण बने चिता भूमि

निष्पाप हो वसुधा अरेरे।


सृजन करो हे सृष्टि संहारक, पालक पावन संसृति अर्न्तयामी 

करो नर्तन तुम सत्यं शिवम् सुंदरम्, आशुतोष चंद्रशेखर जटाधारी।


ऋजुता – संस्कृति,आदमियत; च्युत – पतित; 



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