शिल्पकार
शिल्पकार
धंसा कुछ और निर्जन वन में देखा
पद-चिन्हों की पगडंडी संकीर्ण थी
शस्य पुष्प गंध का अस्तित्व न था
निपट वज्रसार हीरक प्रस्तर थी।
झाड़ियों में छिपा था पंथ-पदवी
ऊबड़-खाबड़ प्रस्तर कंकण
चारों तरफ बस विपिनचर प्राणी
एकंग पथिक अकेला राह में बीहड़।
मृदु कांति चढ़ रही अखिल निश्चल
क्षितिज छोड़कर अवान्तर गगन में
निहारूँ कैसे उसकी मनोरम बिंब को
कहीं पराजित न हो जाऊँ रण में।
कदमों को बढ़ा धंस इस शून्य में
दिखा इक वनवासी अति सुंदर
पुष्ट लोहित बदन अभ्युत्थित
पाषाण हृदय-स्थल श्रेष्ठ मनोहर।
खनन करता जंगम-कुदाल से
चुहचुहाते बदन प्रस्वेद कण से
पोंछता मगन होकर चलाता हाथ
खींचता डगर जलस्रोत की झरने से।
आवाज़ दे! पूँछा मैनें…करते क्या तुम हो?
नम्र स्वर में बोला कर्तव्य पथ बिछा रहा
वाटिका को सजाने के लिये इस
जलस्रोत को इस वापिका तक ला रहा।
मैं कर्म क्षेत्र का पाही धर्म निभा रहा
प्यासे पंख-पखेरू लतिका तरुओं को सजा रहा
अक्षित बूँदों को सरिता से ला रहा
मैं वनवासी पुरुषार्थी अंतिक धर्म निभा रहा।
विघात रोकते मुझे पर
मैं अधूत निःसंग नित मुस्कुराता हूँ
अर्दन करता वज्र-शूल जालों को
द्रष्टव्य दिशा ओर बढ़ता जाता हूँ।
भयभीत न हो पन्थ के काँटों से
पूरित अनंत आह्लादित सहन में
यहाँ से वृजिन-बला ही ले जाती
हमें आदित्य क्षेम के आलय में।
मंजुलता पर न कभी इतराओ
श्राप बनेगी इक दिन जीवन में
अवधेय बैरागी बन भटकायेगी
तुम्हें अकारथ पृथुका-सौरभ वन में।
कदम बढ़ाओ; बढ़ो लक्ष्य की ओर
न रुको; स्मरण रखो जीवन-रण में
किसी के आतिथेय – भाव से
भीषण वेदना हुई मेरे मन में।
वे लगे रहे अपने हित कर्मो में
निढाल कदमों से मैं बढ़ा अपने पथ पर
सौंदर्यता से यथार्थता श्रेष्ठ है
दृढ़ी कदम चलने लगे कांटों के राह पर।
सुधामयी आभा बिखेरी प्रकाशित छाया
वेदित्व द्युतिमा फैलाती चिर-निरंतर की
परकोटों पर सुनहला स्वर्णांकित था
साँचा पद्मबंधू शोभा सारंग स्वर की।
तीक्ष्ण अक्षुण्ण कृति प्रवाह के
आवृत में छिपकर कंपन-सी
मोहकता गुंजन कर रही
अंतर्वेगों के मनःकीर्तन-सी।
अनुराग सत्यता की लालिमा उषा है
जिस ओर पड़े ममत्व की छाया है
इधर प्रीति की साँचा आभा बन
व्याकुल-सी दौड़ी-दौड़ी आया है।
प्रेम से अकुलाये हृदय मिट-मिट जाते
काम्यता सौंदर्यता में लय हो जाते
आलोकित होता उसे निज में तब
सरस सुदेश बन साँच निरामय हो जाते।
मैं शिल्पकार देखा लेखन स्वप्न सुनहरा
शब्दों-लंकारों की छटा सृजन में
पूर्णिमा की धवल चाँदनी बनकर चमक रहा
आदिशक्ति-इंद्राणी की काया ‘परिमल’ गगन में।
मनुजता मेरी अमरता हुई थी
संगमित हुई प्राण-शक्ति के सायुज्य में
घट-घट बोल रहा था अंतर्मन का
विराट्-रूप सत्यता सुंदरता मे़ं।
अंतिक – पड़ोसी, अक्षित – जल