श्रीमद्भागवत - १२३; विशवरूप का वध, वृत्रासुर द्वारा देवताओं की हार
श्रीमद्भागवत - १२३; विशवरूप का वध, वृत्रासुर द्वारा देवताओं की हार
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
विशवरूप के सुना है तीन सिर थे
एक मुँह से सोमरस, दूसरे से सुरा पीते
तीसरे से वो अन्न थे खाते।
उनके पिता त्वष्टा आदि
बारह आदित्य देवता थे
इसलिए वो ऊँचे स्वर में बोलकर
देवताओं की आहुति देते।
और आहुति दिया करते थे
छुप छुप कर असुरों की भी
मातृ स्नेह से वशीभूत होकर
क्योंकि उनकी माता असुर कुल की थीं।
भाग पहुँचाया करते असुरों को
इस प्रकार यज्ञ करते समय
देवताओं का अपराध करते हुए
इंद्र ने था देख लिया उन्हें।
इंद्र को था क्रोध आ गया
काट लिए उनके तीनों सिर
एक सिर पपीहा, दूसरा गोरैया
तीतर हो गया खाने वाला सिर।
ब्रह्महत्या तब लगी इंद्र को
चाहते अगर, दूर कर सकते थे
परन्तु ऐसा उचित न समझा
स्वीकार किया हाथ जोड़कर उसे।
उससे छूटने का एक वर्ष तक
कोई उपाय नहीं किया उन्होंने
फिर सब लोगों के सामने
अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिए।
अपनी ब्रह्महत्या को उन्होंने
चार हिस्सों में बाँट दिया
एक एक हिस्सा पृथ्वी, जल,
वृक्ष और स्त्रिओं को दे दिया।
हे परीक्षित, पृथ्वी ने बदले में
ये वरदान लिया था उनसे
जहाँ भी गड्ढा हो, समय पर
भर जाये अपने आप से।
चतुर्थांश भाग स्वीकार कर लिया
ब्रह्महत्या का, इंद्र की
वही ब्रह्महत्या पृथ्वी पर कहीं कहीं
ऊसर के रूप में दिखाई पड़ती।
दूसरा चतुर्थांश वृक्षों ने लिया
वर मिला था उन्हें भी
जम जाएगा फिर से उनका
हिस्सा कट जाने पर कोई।
ब्रह्महत्या दिखाई पड़ती
उनमें अब भी गोंद के रूप में
ब्रह्महत्या का तीसरा चतुर्थांश
सवीकार किया था स्त्रिओं ने।
स्त्रिओं ने यह वर पाया कि
सर्वदा पुरुष का सहवास कर सकें
रज के रूप में दिखाई देता है
ब्रह्महत्या प्रत्येक महीने मे।
ब्रम्हत्या का चतुर्थांश जल में
दिखे फेन, बुदबुद के रूप में
जल ग्रहण किया करते हैं
इसलिए मनुष्य हटाकर उसे।
जल ने यह वर पाया कि
खर्च करते रहने पर भी
निर्झर आदि के रूप में
बढ़ती ही होती रहेगी।
विशवरूप की मृत्यु के बाद
त्वष्टा जो उनके पिता थे
इंद्र का शत्रु उत्पन्न हो
इसके लिए हवन करने लगे।
यज्ञ समापत होने पर वहां
अग्नि से एक दैत्य प्रकट हुआ
बड़ा भयंकर, सब और प्रतिदिन
वाण के बराबर बढ़ जाता।
बड़ी डील डोल का था वो
काला समान जले हुए पहाड़ के
बाल, दाढ़ी समान ताम्बे के
सूर्य के समान नेत्र थे ।
पृथ्वी कांप उठे, नाचता था जब
तीन नोक का त्रिशूल लेकर वो
मुँह खोल जम्भाई लेता, लगे
निगल जायेगा तीनों लोकों को ।
लगता था पी जाये आकाश को
उसके भयावने रूप को देखकर
इधर उधर भागने लगे थे
सभी लोग उससे तब डरकर ।
त्वष्टा के इस तमोगुणी पुत्र ने
सारे लोकों को घेर लिया
इसी कृत के कारण ही
उसका नाम वृत्रासुर पड़ा ।
अनुयायिओं के साथ देवता
सभी उसपर टूट पड़े हे
परन्तु उन सब के अस्त्र शस्त्र
वृत्रासुर ने निगल लिए थे ।
आश्चयचकित हुए देवता
शरण में आये, नारायण की
स्तुति करें भगवान की सारे
और हरि से ये प्रार्थना की ।
कहें भगवान उदारशिरोमणि प्रभु
अवश्य हमारा कल्याण करेंगे
उनकी स्तुति सुन प्रभु प्रसन्न हुए
पश्चिम की और से प्रकट हो गए ।
उनके साथ में सोलह पार्षद थे
दिखने में उनके समान थे
बस वक्षस्थल पर नहीं वत्स का चिन्ह था
कौस्तुभमणि नहीं थी गले में ।
भगवान का दर्शन पाकर देवता
आनंद से विह्वल हो गए
भगवान को साष्टांग दण्डवत किया
और उनकी स्तुति करने लगे ।
आप की महिमा है जो
त्रिलोकी का भी हरण करती है
दैत्य, दानव और असुर भी
आप की ही विभूतियां हैं ।
अनेकों रूप में अवतार ग्रहण कर
उनके अपराध के अनुसार ही
उन्हें दण्ड देते हैं आप ही
अब ख़त्म करें वृत्रासुर को भी ।
हे सर्वशक्तिमान श्री कृष्ण
वृत्रासुर ने हमारे प्रभाव को
और अस्त्र शस्त्र को निगल लिया
अब ग्रास रहा तीनों लोकों को ।
हे प्रभु हम विनती करते
मार डालिये आप अब उसे
देवताओं की विनती सुन हरि
प्रसन्न हुए, उनसे कहने लगे ।
देवराज इंद्र, तुम सब
चले जाओ और देर न करो
पास जाकर ऋषि दधीचि के
उनसे उनका शरीर मांग लो ।
उपासना, व्रत और तपस्या से
शरीर उनका अत्यंत दृढ हो गया
शुद्ध ब्रह्म का ज्ञान है उन्हें
त्वष्टा को नारायणकवच का ज्ञान दिया ।
अश्वनीकुमारों को घोड़े के सिर से
उपदेश देने के कारण ही
उनको अशवसिर भी कहते
एक नाम है उनका ये भी ।
दधीचि की उपदेश की हुई
आत्मविद्या के प्रभाव से
दोनों ही अश्वनीकुमार जी
जीवन मुक्त हो गए थे ।
विशवरूप ने नरायणकवच का
जो उपदेश तुम्हें दिया था
दधीचि ने पहले पहल वही
त्वष्टा को उपदेश दिया था ।
त्वष्टा ने विशवरूप को दिया
विशवरूप से तुम्हे मिला वो
अश्वनीकुमार के मांगने पर अब
दधीचि शरीर दें तुम लोगों को ।
धर्म के परम मर्मज्ञ दधीचि
शरीर पा लोगे जब तुम उनका
श्रेष्ठ आयुध तैयार कर लेना
विशवकर्मा द्वारा उनके अंगों का ।
उसी शस्त्र के द्वारा फिर
युक्त होकर मेरी शक्ति से
हे देवराज इंद्र तुम
काट लोगे वृत्रासुर का सिर ।
मर जाने पर वृत्रासुर के
हे देवताओ, तुम फिर से
तेज,अस्त्र, शस्त्र और
सम्पत्तियां प्राप्त करोगे ।