बेगानी है सिंधु घट
बेगानी है सिंधु घट
मत भटक राही तू तट – तट
मचलती लहराती लहरों से मत
नीर माँग प्यासा रह बेगानी है
ये सिंधु घट ये सिंधु घट।
आकुल अधरों पर प्यास लिये
मन में अटल विश्वास लिये
उपवन उपवन गागर सागर में
भिक्षुक बन तुम क्यूँ भटके घट-घट।
लगी अँखियाँ गागर – गागर पर
देखे रूप सरस काहे प्यास जगी
अनुरागी साँसें सुलगी – सुलगी
सुन कदमों की चंपई आहट।
घुमड़ रही मेघा तो बरसेगी
वो रीती घट को भर देगी
मिट जायेगी प्यास पल दो पल में
जीवथ की तृष्णा की अकुलाहट।
पुलकित मन से यूँ न पुकार
संगदिल अमोही हर इक द्वार
सुभद्र किरण केश सुलझायेगा
तमसों की यह उज्झटित लट।
