श्रीमद्भागवत -१२६; वृत्रासुर का वध
श्रीमद्भागवत -१२६; वृत्रासुर का वध
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श्रीमद्भागवत -१२६; वृत्रासुर का वध
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
वृत्रासुर के विचार से
स्वर्ग लोक ही जा सकता वो
इंद्र पर विजय प्राप्त करके।
इसकी अपेक्षा रणभूमि में
अपना शरीर त्यागणा चाहता
क्योंकि स्वर्ग से बढ़कर, मरने से वहां
हरि को प्राप्त करना श्रेष्ठ था।
त्रिशूल लेकर इंद्र पर टूट पड़ा
वेग से इंद्र पर चला दिया
क्रोध में सिंहनाद कर बोला
पापी इंद्र, तू बच नहीं सकता।
इंद्र ने वज्र से उसे काट दिया
भुजा भी काट दी वृत्रासुर की
क्रोध में भरकर तब वृत्रासुर ने
प्रहार किया ठोड़ी पर इंद्र की।
अपने परिध से प्रहार किया
वाहन गजराज ऐरावत पर भी
जब गिर पड़ा वज्र हाथ से
इंद्र सोचे मैं क्या करूं अभी।
वृत्रासुर ने कहा, हे इंद्र तुम
वज्र उठाओ, छोडो मुझपर अभी
ऐसे उन्हें उपदेश देने लगे
जय पराजय का कारण काल ही।
इसे ना जानकर जय पराजय का कारण
मनुष्य माने इस शरीर को ही
रचना, संहार प्राणीओं की करते
भगवान स्वयं प्राणीओं द्वारा ही।
इच्छा ना होने पर भी
समय विपरीत होने पर जैसे
मनुष्य को मृत्यु और
अपयश आदि प्राप्त हैं होते।
वैसे ही अनुकूल समय में
इच्छा ना होने पर भी
भोग भी मिल जाते हैं और
मिलें आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य आदि ।
इसीलिए यश-अपयश, जय-पराजय
सुख-दुःख, जीवन-मरण, इन सब में
समभाव में रहना चाहिए
मनुष्य को इन सभी परिस्थिओं में ।
मनुष्य को नहीं होना चाहिए
वशीभूत हर्ष शोक के
सत्व, रज, और तम ये तीनों गुण
आत्मा के नहीं, ये हैं प्रकृति के ।
अत: जो पुरुष, आत्मा को
साक्षीमात्र जानता उनका
गुणदोषों में उनके वह पुरुष
कभी भी लिप्त नहीं होता ।
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
सत्य वचन सुन वृत्रासुर के ये
इंद्र ने उनका आदर किया
उठा लिया वज्र नीचे से ।
वृत्रासुर से कहें फिर इंद्र
सिद्ध पुरुष हो दानवराज तुम
तभी तो तुम्हारा धैर्य, निश्चय और
भागवतभाव इतना विलक्षण ।
भगवान की अनन्य भक्ति है तुममे
और ये बात है बड़े आश्चर्य की
रजोगुणी प्रकृति के हो तुम तो भी
बुद्धि भगवान वासुदेव में लगी हुई ।
भक्तिभाव रखता है जो
भगवान श्री हरि के चरणों में
उसे क्या आवश्यकता है
भोगों की इस जगत के ।
धर्म का तत्व जानने के लिए
बात करने लगे एक दूजे से
इंद्र और वृत्रासुर दोनों
युद्ध करते हुए आपस में ।
वृत्रासुर ने एक बड़े परिध से
इंद्र के ऊपर प्रहार किया
सौ गाठों वाले वज्र से
इंद्र ने परिध और भुजा को काट दिया ।
दोनों भुजा के कट जाने से
वृत्रासुर के दोनों कन्धों से
खून की धरा थी बहने लगी
लग रहा वो समान पर्वत के ।
ठोड़ी को लगाया धरती से
ऊपर के होंठ को स्वर्ग से
गहरा मुँह आकाश के समान
जीभ सांप के समान लगे ।
मृत्यु के समान दाढ़ों से
मानो निगलता त्रिलोकी को
पैरों से पृथ्वी को रोंद्ता
इंद्र के पास पहुंचा वो ।
वहां आकर वो लील गया
ऐरावत समेत इंद्र को
जैसे अत्यंत बलवान अजगर कोई
निगल जाये किसी हाथी को ।
प्रजापति और महर्षि सब
अत्यंत दुखी हुए थे देख ये
परन्तु इंद्र ने सुरक्षित कर रखा
अपने को नारायणकवच से ।
निगलने पर भी वृत्रासुर के
नहीं मरे थे इसीलिए इंद्र
वज्र से उसकी कोख फाड़ दी
सिर काटा वहां से निकलकर ।
वृत्रासुर का योग उपस्थित होने पर
एक वर्ष में वज्र ने घूमते हुए
गर्दन सब और से काटकर
भूमि पर गिरा दिया उसे ।
तब वहां पुष्प वर्षा करने लगे
महर्षि, गन्धर्व, सिद्ध लोग सब
निकलकर वृत्रासुर के शरीर से
आत्मा हरि में लीन हुई तब ।