मन बालक
मन बालक
दुबका छिपा बैठा है मन में,
आ जाता निकल बाहर कभी-कभी
उम्र पिचहत्तर में भी बालक मन।
कभी ज़िद करता दौड़ लगाने की,
तो कभी पेंग बढ़ाने की झूले पर,
कभी साथियों के साथ लुका छिपी खेलने की,
कभी वर्षा के पानी में छप-छप कर नहाने की,
मित्रों के साथ खेलने को तरसता बालक मन।
दुबका छिपा बैठा है मन में,
आ जाता निकल बाहर कभी-कभी
उम्र पिचहत्तर में भी बालक मन।
देखो-देखो कैरी लगी हैं
पड़ोस के बाग़ में,
चलो-चलो चुपके से तोड़ें,
भाग लेगें आया अगर माली,
चोरी से कैरी खाने को तरसता बालक मन।
दुबका छिपा बैठा है मन में,
आ जाता निकल बाहर कभी-कभी
उम्र पिचहत्तर में भी बालक मन।
हलवाई सीताराम तल रहा है गरम समोसे,
जलेबी, गुलाब जामन भी हैं गरम-गरम,
उम्र को रख ताक पर,
दौड़ पड़ते हैं, मुँह में आ रहा पानी,
विभिन्न व्यंजन खाने को तरसता बालक मन।
दुबका छिपा बैठा है मन में,
आ जाता निकल बाहर कभी-कभी
उम्र पिचहत्तर में भी बालक मन।
माँ की गोद में बैठ लाड़ करने को,
माँ के हाथ से खाना खाने को,
माँ से झूठ-मूठ रूठने को मचलता,
परन्तु माँ तो तारा बन चली गई,
माँ के प्यार को तरसता बालक मन।
दुबका छिपा बैठा है मन में,
आ जाता निकल बाहर कभी-कभी
उम्र पिचहत्तर में भी बालक मन।