शिकायतें
शिकायतें
है मानव मस्तिष्क बेशुमार शिकायतों से भरा पिटारा,
माता-पिता से है शिकायत तो होगी भाई-बहनों से भी,
तो होती है शिकायतें माता-पिता को भी बच्चों से,
है कोई रिश्ता ऐसा न हो शिकायत जिससे हमें?
करनी आरम्भ करें गणना यदि पति-पत्नी के आपसी शिकायतों की,
तो पूरी ज़िंदगी लग जायेगी जनाब परन्तु गणना समाप्त न होगी,
देश से, देश की सरकार से, अड़ोगी-पड़ोसी से, मित्रों से कहाँ तक गिने,
बैठा है झुंड वहाँ महिलाओं का, चलें चुपके से सुने क्या गप्प चल रही है,
अरे-अरे खुला पड़ा है न समाप्त होने वाला पिटारा यहाँ तो शिकायतों का,
सास को बहू से और बहू को सास से हैं शिकायतें न समाप्त वाली द्रौपदी की चीर की भाँति,
क्या कहें, कहाँ तक कहें जब ले रखा है ईश्वर को भी हमने शिकायतों के घेरे में।
फिर भी है नहीं कोई शिकायत प्रभु को हमसे क्योंकि करतें हैं वह असीम प्यार हमसे,
हो निःस्वार्थ प्रेम भरपूर रिश्तों में तो रहेगा न कोई स्थान शिकायतों का,
चलो बहा दें किसी नदी में शिकायतों को कर बन्द एक पिटारे में,
नहीं है पता टूट जायेंगी कब डोर साँसों की शिकायतें करते-करते?
टूटनी ही है एक दिन डोर साँसों की तो क्यों न टूटे प्यार भरी बातें करते-करते?
