पिंजरे की चिड़िया
पिंजरे की चिड़िया
पिंजरे की चिड़िया थी सोने के पिंजरे में।
वन की चिड़िया थी वन में।
एक दिन हुआ दोनों का सामना।
क्या था विधाता के मन में।
पिंजरे की चिड़िया बोले वह अव्वल दाना खाती है।
और सोने के बर्तन से ही शुद्ध मीठा पानी पीती है।
वन की चिड़िया बोले कि वह तो खुली हवा में उड़े।
जहां जी चाहा जब चाहा बस मेरे पंख उस ओर मुड़े।
पिंजरे की चिड़िया बोले वह तो सारे दिन और सारी रात।
आराम से जीती है और उसे नहीं है कोई चिंता की बात।
वन की चिड़िया इतराकर बोले वह खुले आसमान में है उड़ती।
जब चाहा अपने पंख खोलकर वह तो ऊंचाइयों से है जुड़ती।
वह तो हर बदलते मौसम का बहुत आनंद लेती है खुलकर।
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बागों बगीचों में घूमती है दिन भर, चहकती है जी भरकर।
अब पिंजरे की चिड़िया हुई थोड़ी दुखी और मायूस सी।
उसकी आंखों में आसूं आए वह हो गई बहुत उदास सी।
वह दुखी स्वर में बोली, क्या होती खुली हवा और ऊंचाई।
क्या जाने खुला आसमान, मालिक ने वह दुनिया नहीं दिखाई।
वन की चिड़िया बोली, मेरी बहन मत होना तू ऐसे उदास।
अवसर मिले तो हिम्मत करके उड़ जाना, पंख हैं तेरे पास।
जब तक तू ही कीमत को नहीं जानेगी अपनी आज़ादी की।
हिम्मत नहीं मानेगी, खुद ज़िम्मेदार रहेगी अपनी बर्बादी की।
पिंजरे की चिड़िया को वन की चिड़िया की यह बात समझ में आई।
एक दिन पिंजरा खुला पाकर उसने खुले आसमान में ऊंची उड़ान लगाई।