सवैया छंद: लिबास नहीं चेतना शुद्ध
सवैया छंद: लिबास नहीं चेतना शुद्ध
कलयुग में चरणामृत,दुर्लभ यहां तलाशना दार्शनिक।
रामाधार पर कहां ये आए,मुद्दा हो चाहें प्रशासनिक या धार्मिक।
वज्रघात यहां होती माटी,यहां हाथ सुमरनी बगल कतरनी।
कथन अब ये भी है गलत,कैसे कहें जैसी करनी वैसी है भरनी।।
देखो नेता जी का ये न्यू लुक,आई मौज फ़कीर को दिया झोपड़ा फूंक।
हाथ जोड़ कहते चुनाव में,माफ़ करो हुआ जो भी यहां गलती - चूक।।
कबीर दास की उलटी बानी,यहां बरसे कंबल और भीगे पानी।
मैंने किया केवल संघर्ष, हां पढ़ो केवल मेरी खौफ़नाक कहानी।।
सही कथन साहित्यिक भी,उचित है घायल की गति घायल जाने।
बुद्धे: फलमनाग्रह: ही,पर हठ ना करो तो सब पागल माने।।
ना करो ज्यादा जोगी - जोगी,ज्यादा जोगी मठ उजाड़।
बोलो जो रहता है उपयोगी,मनुष्य नहीं निकाले सिंह की दहाड़।।
ये भगवा का सम्मान करो,पर मेरे राष्ट्र का ना अपमान करो।
संविधान की है सभा यहां,समझो फ़िर नवयुग - निर्माण करो।।
मिलके जल का संचार करो,ये अर्थव्यवस्था की जड़े ना कंटे।
उद्योगपति से रहो सतर्क, खेती की ज़मीन ना घटे।।
समझो यदि जाने ये कथन,जान मारे बनिया पहचान मारे चोर।
उज्जवल ही नहीं पथ में, कई तरफ़ है अभी अंधेरा घनघोर।।
रिश्ते का डोर हो मजबूत,यदि बिन लोभ के मित की मित ना गई।
दोषी तुम भी हम भी है दोषी,यदि मेहनती की फिल्में हिट ना गई।।
लिबास नहीं चेतना शुद्ध, रखो नित्य अपने मुख में वाणी शुभ।
दुराचारी यदि अस्तित्व,क्या करोगे नहाकर गंगा महाकुंभ।।
संस्कृति- सभ्यता का,हार्दिक स्वागत व सम्मान करो।
इतना यदि कर सको फ़िर,अपने भू - स्थल पर अभिमान करो।।