।। चाह ।।
।। चाह ।।


चाह नहीं मैं किसी महल की ,
कोई चोटी या कंगूरा हूँ ,
ना ही चाहूँ वो राह कभी ,
जिन पर मैं बस चल पूरा हूँ ।
ना चाह रही इस जीवन में ,
मेरी हर इच्छा का मान रहे ,
ना चाहत जब जाऊं जग से ,
बस हर मन मेरा ध्यान रहे ।
कब चाहा था हर स्वप्न मेरा ,
मैं चाहूँ तब ही साकार रहे ,
ना ही ये मन मैं रहा कभी ,
जग मेरा चाहा आकार रहे ।
मैंने तो बस जब भी चाहा ,
सबके हित ही मेरा हित हो ,
मेरा हर श्रम उसका प्रतिफल ,
श्री हरि के चरणों अर्पित हो ।
मैं मंदिर की सीड़ी बन कर ,
चूमूँ हर पग जो आता हो,
बनूँ थाल आरती का प्रभु के ,
हर घर आशिष जो लाता हो ।
हर साँस मेरी और हर धड़कन ,
माधव की बंसी सी बजती हो ,
बस सेवा में ही हो संसार मेरा ,
खुशियाँ हर आँगन रजती हो।
ये मानव काया जो पंचतत्व ,
पंचामृत इसमें बस मिल जाये ,
भक्ति करुणा आभार समर्पण ,
ममता से ये अंबुज खिल जाये ।
जाने से पहले इस जग से ,
प्रभु ऐसा लीला मंचन हो जाये ,
मन वृन्दावन मति काशी मय ,
ये नश्वर तन अब कंचन हो जाये ।
ये नश्वर तन अब कंचन हो जाये ।।