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Dinesh paliwal

Others

4.2  

Dinesh paliwal

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।। घड़ी ।।

।। घड़ी ।।

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355



क्या बस दो निरंतर

चलते कांटे महज

या वक्त को खाती

निगलती एक निर्वात

रूप लंबी सी गली

जिसमें यादें टूटे वादे

या कितनी भूल पली ।

छिटकती रेत सा वक्त

भागता हर एक लम्हा

घड़ी की टिक टिक ज्यों

कोई आशिक हो तन्हा

गुजरता पल जो कांटे

समय के बढ़ते है

लीलते वक्त को वो

दस्तक समय की गड़ते हैं ।

एक दिन अचानक घड़ी बंद

लगा समय अब रुक गया

ठहर गए सब मुकाम

क्या सुबह अब क्या ही शाम

हर पहर का बस एक नाम

अट्टहास करती कोई पहेली

बेवक्त जैसे हो आयी सहेली

न कटता है न बीतता है

वक्त अब हालात से न जीतता है।

रुक सा गया जो बहता था

ना वापस आऊंगा जो कहता था

वो बंधन में घड़ी के जब पड़ा

था आसक्त अब वो कब लड़ा

समय की अब यही पहचान है

कांटे घड़ी के उसको देते जान हैं

हां वक्त बंध गया है दो कांटो में

इन से ही उसका जुड़ा सम्मान है ।

पर अब भी फिसलता रेत सा

गुमता जाता मुख काल मे

क्या मनुज तुझको लगा कि

बांधा समय को जाल में

कांटे तो बस बांधते उस पल

जो संजो रखते यादें बीती

कीमत समझती वक्त की जो

तो सच बताऊं घड़ी भी जीती

घड़ी न कोई समय निगलता निर्वात है

बस ये तो दो समय के हाथ है

वक्त के चलने की आहट

ज्यों काल की कोई छड़ी

हाल उस पल का बताती

कैसी है अब जीवन

घड़ी ।।



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