शब्द
शब्द
मैं शब्द हूं,
कुछ वर्ण साथ जब आते हैं,
मिल सार्थक सा कुछ बनाते हैं,
देते हैं एक दूजे को होने का अर्थ,
एक दूसरे से हो पोषित,
मात्राओं से हो फिर समर्थ,
मन के पटल ये उभर आते,
मिटाके हस्ती अपनी,
और सब अकड़ स्वर व्यंजन की,
समा एक दूजे में जो ये जाते,
ये वर्ण मुझे,हैं मेरी पहचान दिलाते।।
मैं शब्द हूँ,
वर्ण ढूंढते खुद का अर्थ,
हो जाते हैं समाहित जब,
वो मैं समवेत नाद हूँ,
मैं आह्लाद हूँ अवसाद हूँ,
कितने वर्णों की अपेक्षा,
कितने के अनकहे उन्माद हूँ,
कुछ आधे कुछ शांत भी,
कुछ उत्साहित तो कुछ क्लांत भी,
अपने अपने नाद से जब,
कुछ तलफ्फुस में हैं लड़खड़ाते,
ये वर्ण मुझे मेरी आवाज़ से हैं मिलाते।।
मैं शब्द हूँ,
किसी वाक्य में बस पिरोया हुआ,
कभी उद्घोषित कभी सोया हुआ,
कभी नाम कभी क्रिया कभी विशेषण हूँ,
कभी उपमाओं का एक अन्वेषण हूँ,
अर्थ हर बार एक नया पाता हूँ,
जैसे वाक्य में जब संजोया जाता हूँ,
कभी उनमान कभी सारांश,
कभी काव्य या पटकथा का हिस्सा हूँ,
मैं शब्द ही हूँ जो रचता,
हर कविता कहानी या किस्सा हूँ।।
मैं शब्द हूँ,
जो करुण भी तो कभी निष्ठुर भी,
जो कभी ताल में तो कभी बेसुर भी,
तीर सा तीखा जो कभी लगता हूँ,
कभी झरते फूल सा फबता हूँ,
वाणी मुझे देती मेरा आधार है,
तीव्र या कोमल ये वाचक भार है;
संवेदना या उपहास लक्षित भाव में,
शीलता से कही या ताव में,
ये तो श्रोता और वाचक का विषय,
संदेश ले निर्लिप्त न तब संवरता हूँ
मुझ से आहत जो कोई होता कहीं,
हूँ अमर, पर उस रोज मैं भी मरता हूँ,
हूँ अमर, पर उस रोज मैं भी मरता हूँ।