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DR MANORAMA SINGH

Abstract Action Inspirational

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DR MANORAMA SINGH

Abstract Action Inspirational

काला पानी

काला पानी

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मैं काला पानी बोल रहा हूँ

अण्डमान की धरती से,

मेरा अन्तर्मन घायल है,

अपने ही वीरों की

 चीखें से,

काल कोठरी के हर ताले को

खोल रहा हूँ,

अंग्रेजों के काले चिट्ठे 

खोल रहा हूँ,

अण्डमान की धरती से,

अपने पुरखों को सुमन समर्पित कर रहा हूँ,

अण्डमान की धरती से,

जहां यमदूत भी भय खाते थे,

असह्य पीड़ा के कोड़ों से,

तुमको सुननी ही होंगी

 वो भयंकर यातनायें

 काले पानी की,

तुमको सुननी ही होंगी कहानी असंख्य बलिदानों की,

जिनके प्राणों के त्याग पर

 यह राष्ट्र दिखाई देता है,

गोरों के काले कानूनों का जहाँ साम्राज्य दिखायी देता है,

नहीं सुनोगे तो क्या जानोगे?

अनगिनत इन्दु भूषण को, उल्लासकर, सावरकर और वीर नानी गोपालों को,

सुबह से लेकर संध्या तक,

पसीने से वो लथपथ होते थे,

नारियल की भूसी से,

 सर से लेकर पॉवों तक सने उनके होते थे,

बेड़ियाँ लगी पावों से चलकर जब आते थे, तो 

चालीस चालीस पौंड तेल भरी बाल्टियां लेकर आते थे,

उस पर भी कंधों पर

 बोरे का बोझ वे ढोते थे,

अक्सर इंदु अत्याचारों को सहता दिख जाता था,

तेल छलकने पर उतने ही कोड़ों का पारितोष वह पाता था,

तभी एक दिन सुबह दुखद खबर मिली,

अपने ही कपड़ों से बटकर रस्सी

अपमानों से मृत्यु उसे सुखकर लगी,

अब स्वराज्य के टूटते सपनों संग,

उनकी आशा भी टूट चली

हर महीने कोई न कोई सेनानी

देशाभिमानी,

अपमानों की रस्सी से

मृत्यु को गले लगाते थे,

देखकर ब्रिटिश हुकूमत इनको

सिरफिरा, पागल बताते थे,

वहां फॉसी, बंदीशाला, बंदीवास

पकड़-धकड की कर्णकटु चीखें और कोलाहल सुनाई देता था,

पेटी अफसर और पेटी वार्डर में यमराज दिखायी देता था,

कोठरी में बंद करके

 जब रुई की तरह

 उन्हें धुनते थे,

उनके आर्तनाद के स्वर

भारत माँ के दिल को छलनी करते थे,

107 के ज्वर में भी

 विद्युत के झटके, 

औषधि की तरह वो देते थे,

आत्मवध, फाँसी अथवा पागलखाने के पीछे 

कठोर यातनाओं की पद्धति उत्तरदायी थी,

यहाँ भी मुस्लिम तुष्टिकरण की

जड़े दिखायी देती थी,

दलिये में मिट्टी का तेल,

सब्जी में सॉप और कनखजूरे,

रोटी अधपकी या अधजली,

चावल अधपके या अधजले,

खाकर जीवन जीते थे,

कड़ी धूप और घनघोर बारिश में पंक्ति बनाकर

 खड़े खड़े ही भोजन करते थे,

बारिश से भीगी रोटी और पानी से भरे कटोरे को 

खड़े खड़े ही पीते थे,

जहाँ दिन भर में एक कटोरा पानी का 

पीने को मिलता था,

जहाँ नहाने के लिए भी

 उतना ही पानी मिलता था,

उस काले पानी के सेवन से चमड़ी तक उधड़ जाती थी,

जहाँ कोल्हू में बैल 16 पौड

तेल निकालते थे,

वहीं कैदी को बैल बनाकर

अस्सी पौंड नारियल का तेल निकलवाते थे,

थोड़ा सा भी कम होने पर

उन पर जो कोड़े पड़ते थे,

कई इंचों तक चमड़ी अंदर तक जब धंस जाती थी

कोड़ों पर लगे रक्त मॉस के टुकड़ों पर

 गुलामी अपने कर्मों पर रोती थी,

 छलनी उनसे त्वचा ही नहीं

आत्मा तक हो जाती थी

कष्टों के कारण पागल बनकर

फॉसी ही मुक्ति नजर आती थी,

फिर भी मातृभूमि की मुक्ति

हेतु उन कष्टों को,

कर्तव्य समझकर सहते थे,

हमारे अण्डमानी जगत में संवाद भी प्रतिबन्धित था लेकिन बिन बोले ही

ध्वनि लिपि से

स्वदेशी बेतार, शुरू हो गया था,

बेड़ियों को सलाखों से टकराकर

कट्ट कड़क कट्ट से गोपनीय

संवाद आरम्भ हो गया था,

ऐसा लगता था कि इनकी आवाज,

एक दो कोठरियों तक ही पहुंच पाती थी,

लेकिन ऐसा दावा था कि

इसकी गूँज जर्मनी तक पहुंच जाती थी,

इन तार यंत्रों से सामुदायिक योजनाएं भी बनती थीं, 

जिनको इन वीरों पर अभिमान नहीं होगा,

जिनसे भारत माता का सम्मान नहीं होगा

जिनको भारत माता अब डायन दिखायी देती है,

जिनको वंदे मातरम कहने पर

आपत्ति दिखायी देती है,

ऐसे गद्दारों को आजादी से रहने का अधिकार नहीं होगा,

ऐसे अपकारियों को अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं होगा,

गहरे संकट से घिरा हुआ आज,

तुमको देख रहा हूँ

इतिहास के दोहराव को 

रोकने के लिए ही,

मैं काला पानी बोल रहा हूँ

अण्डमान की धरती से

मेरा अन्तर्मन घायल है अपने वीरों की चीखों से...

स्वरचित डॉ मनोरमा सिंह


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