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JAYANTA TOPADAR

Tragedy Action Inspirational

4  

JAYANTA TOPADAR

Tragedy Action Inspirational

बहिष्कार

बहिष्कार

4 mins
365


चलो, हम पूर्णतया बहिष्कार करें

ऐसे मुखौटे धारी सफेदपोश लोगों का,

जो केवल अपना निजी स्वार्थ

एवं खुदगर्ज़ी को आधार बनाकर

आपसे संपर्क साधने का

बहुत संकीर्ण जाल बुनते हैं...

मसलन जब भी वो

आपसे मुलाक़ात-गुफ्तगू

करने की ठान लेते होंगे,

वो आपसे इतनी अदाएगी

एवं अदब-क़ायदे से पेश आते हैं

कि आप भी बेशक़

उनको अपने दिल के

करीब मान लेते हैं...!

मगर, ओ भले मानस!

आप थोड़ी एहतियात बरतें...


उनकी लहज़े पर

अपना ध्यान केंद्रित करें...

अगर वो शक्कर या शहद-सी

मीठी लगे,

तो आप ज़रा रुकिए,

ओ, भले मानस !

दुबारा उस (स्वार्थी व्यक्ति) पर

गौर करें...

फिर अपने दिल से ही नहीं,

दिमाग़ से भी काम लें,

क्योंकि आप माने या न माने,

मैंने तो ऐसे मुखौटेधारी

(तथाकथित) जाने-पहचाने चेहरों की

बेगै़रत-बेईमान-बदनियत भरी

असली औक़ात से मेरे पारिवारिक यातना

(जब मेरी अर्धांगिनी

कोरोनावाइरस महामारी से ग्रसित होकर) (तथाकथित) जान पहचान वाले अभिभावकों (जिनके संतानों को मैंने

एक दशक से भी ज़्यादा समय

पूरी ईमानदारी से शिक्षा दान देता रहा...),

बड़ी विडम्बना की बात है,

उनमें से किसी एक ने भी

दया-सहानुभूति-मानवता

(ये शब्द उन बेगैरत लोगों की

बनावटी शब्दकोश में ही

हैं ही नहीं...)

ने आगे बढ़कर (तथाकथित) "दो गज की दूरी"(जो आज एक हास्यास्पद वाकया

बन चुका है)

की बंदिशें स्वीकार कर ही

मदद को आगे नहीं आया...

जबकि मैं, सबका प्रिय पात्र (एक सफेद झूठ!) सर जयंत "तीन दिन : तीन रात तक"

"लाकडाउन" के चलते

"भेड़ पाड़ा, धेमाजी, वार्ड संख्या-४ के"

 मेरे किराए के एक छोटे से कमरे में...

पड़ा-पड़ा भूख से तड़पता रहा...

(और मेरी नवविवाहिता अर्धांगिनी

सरकारी अस्पताल में पड़ी हुई थी),

उस दौरान मैं (तन्हा, दर्द-ओ-ग़म को पीते हुए)

उनकी आरोग्य-प्राप्ति हेतु

परमपिता-परमेश्वर-परमात्मा-ईश्वर-अल्लाह-बुद्ध-यसू मसीह-सूर्य-जल-अग्नि-पृथ्वी-पवन-वृक्ष -- असहाय होकर

सर्वधर्म-उपासना में

निरंतर आँसू बहाता रहा...!


आस पड़ोस के किसी ने भी

(सिवाय हमारे विद्यालय के 

भूतपूर्व प्राचार्य महोदय,

श्री लक्ष्मी नारायण गोस्वामी जी,

एकाउंटेंट श्री सिद्धार्थ दे जी

एवं केवल एक वयोज्येष्ठ शिक्षिका

श्रीमती गिरीजा देवी जी ने

(दूरभाषयंत्र से ही सही

मगर एक बार हालचाल ज़रूर पुछा...!) ,

मगर ये एक विडम्बना की बात है,

मेरे (उस समय के तथाकथित) सहकर्मी, (जिनमें से कुछ आज भी कार्यरत हैं..)

मेरी अर्धांगिनी जीएं या मरें,

उन्हें पल भर के लिए भी

(तथाकथित) सहानुभूति या मानवतावादी विचारधारा के आधार पर

मेरे पारिवारिक संकटकाल (कोरोना वाइरस महामारी के दरमियाँ)

एक बार भी (कमसकम दूरभाष यंत्र -- बहुप्रचलित एन्ड्रॉयड मोबाईल फोन की सुविधा रहते हुए भी...)

बस मूक दर्शक बनकर

यहाँ-वहाँ से (गलत) खबर

जमा करने की धुन में रहे...

एवं प्रायः उनमें से कई सुविधावादी

भारत सरकार पर कटाक्ष करते रहे

(मगर खुद मोबाईल फोन पर "कोरोना-समाचार" देखते रहे...

क्या यही मानव-धर्म है...???


नहीं आज भी मैं

उन सारे स्वार्थी लोगों का 

तह-ए-दिल से बहिष्कार करता हूँ...!!!


मगर हाँ, उन (तथाकथित जानेपहचाने)

बेगै़रत-गद्दारों की टोली में

एक मसीहा ज़रूर निकला किए,

जिनको सब "लिलेन दा"

(एक संभ्रांत थोक-व्यापारी,

जिनसे हमारा महज़

सामान खरीदने का

औपचारिक संपर्क था);

मैंने जब उनसे

महज दूर से ही (फोन पर)

एक रात निरुपाय होकर

यथासंभव मदद करने की

गुहार लगाई...!

(क्योंकि हम दोनों को ही

तमाशाई-नामुराद-बेदर्द-बेग़ैरत लोगों से

अपनी अच्छी पहचान होते हुए भी)

केवल बुरा बरताव एवं

अछूत-सा होने का दर्द भरा

एहसास हुआ...!!)


हम दोनों अलग-अलग

पूरे नौ दिनों तक

दिन-रात रोए...

(मगर तथाकथित "आनलाईन कक्षा" को

मैं नित्य सही समय पर

अपने "सामयिक" बंदी गृह

(किराए के मकान) से ही

अपने दिल पे पत्थर रखकर

एक शिक्षक कार्यकर्ता का

परम् कर्तव्य मानकर

निभाता रहा...

करता रहा...


मगर उस संकट काल में

(कमसकम मुझे मानसिक शक्ति

 देने के लिए ही सही),

मेरे शिक्षार्थियों के (तथाकथित) अभिभावकों

में से एक भी मसीहा बनकर (उत्साह से)

आगे नहीं आए...!!!

इससे बड़ी आंतरिक चोट

हम दोनों ने अपनी

(पहली वाली) खुशनुमा ज़िन्दगी में

कभी कल्पना भी नहीं की थीं !!!


मगर ऊपरवाले का खेल

वहीं जाने...!

इन गहन संकटमय परिस्थितियों में भी

निस्वार्थ भाव, सत्साहस एवं

आत्मविश्वास के साथ

 "धेमाजी सिविल अस्पताल" के

"कोविड-१९ के विशेष वार्ड में" सेवाव्रत

परिश्रमी चिकित्सकों, 

नर्सों एवं सहायिकाओं ने भी मेरी अर्धांगिनी

श्रीमती दीपिका दत्त तपादार की

यथासंभव सेवा-सुश्रुषा कर

"अखण्ड" मानवता का

सम्यक परिचय करवाया...

मैं उन सब का सदैव ऋणी हूँ...


मगर बड़ी गद्दारी कर गए 

अपनी निजी स्वार्थ -- अपने संतानों की भविष्य-मात्र की सुरक्षा हेतु)

मेरे आगे-पीछे मँडराने वाले...

बस अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु

मेरी बेसिरपैर प्रशंसा के

पुल बाँधने वालों में

किसी एक (तथाकथित) इंसान ने

एक मरतबा मेरी खबर तक "नहीं ली", जब मैं

तीन दिन : तीन रात "लाकडाउन" के चलते

भूखा-प्यासा दर्द-ओ-ग़म से तड़पता रहा...

तब वो लोग बड़े आराम से

अपने एन्ड्रॉयड मोबाईल फोन पर 

देश-विदेश की खबरनामे पर 

अपनी नज़रें गढ़ाए बैठे होंगे

(चाहे उनके तथाकथित "प्रियपात्र" सर जयंत

कोरोनावाइरस की महामारी की

चपेट में आता रहा...रोता रहा...

ऊपरवाले को पुकारते हुए

बस अपनी अर्धांगिनी की

शीघ्र आरोग्य-लाभ 

करने की "खाली हाथ"

 दुआ माँगता रहा...)


और हाँ, मुझे इस बुरे-से-बुरे और

घृणित दौर में ग्राम भकुवामारी (आलिसिंगा), शोनितपुर (असम) में फँसे मेरे अपने ;

यहाँ-वहाँ बसने वाले मेरे रिश्तेदार,

और भद्रपाड़ा, धेमाजी में फँसे मेरी अर्धांगिनी के अपनों ने मुझे (दूर से ही)

हर संभव सहारा

एवं अभय-दान दिया...


हाँ, मैं उन "गिने चुने"

खुशनसीबों में से एक हूँ!

वजह ये है कि भारत सरकार की

"सफल-सक्षम-सबल" रणनीतियों के चलते

कई "बेशक़ीमती जानों" में

मेरी अर्धांगिनी दीपिका की

"जान" (मेरी जान...!) भी 

आज सही सलामत हैं...!!!


इस भीड़ में शामिल

आप सब "इंसानों" को 

इस अकिंचन का 

करबद्ध नमन...!!!

(अगर कहीं अतिशयोक्ति हुई

तो आप सब गुणीजन मुझे माफ करें...)

मगर मेरा मानना है कि

आप में से कइयों ने अपनों को खोया...

मैं उन सब पवित्र आत्माओं की

चिरशांति हेतु प्रार्थना करता हूँ....

अगर आपके "अपने" दुबारा

घर लौट आए,

मैं उनकी दीर्घायु हेतु

सर्वधर्म-प्रार्थना करता हूँ,

क्योंकि मैं सर्वप्रथम

एक आम इंसान हूँ।

मुझे मानव में अब बस

"ऊपरवाला" नज़र आता...

(जिन्हें आप किसी भी रूप में

स्वीकार सकते हैं...)

मैंने जाना है कि

मानव-सेवा ही

इस पूरे विश्व में स्वीकृत

महानतम सेवा-भाव है...।

 


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