Shivanand Chaubey

Abstract Tragedy

1.0  

Shivanand Chaubey

Abstract Tragedy

प्राण में सच

प्राण में सच

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है नहीं गुंफित अभी तक, भाव यह मन प्राण में सच !

अनसुने विध्वंस के स्वर,अद्य भी हैं कान में सच !


माँ नहीं हम मान पाए, आज तक भी रुग्ण नदियां

धार शुचि अबतक न अविरल, डालते मग में अडंगा।


म्लान क्यों नदियां हुई है,क्या हमें है ज्ञात कारण ?

रोग है यदि ज्ञात हमको, क्यों न हो पाता निवारण ?


क्यों बने तट पर अनेकों,विष उगलते कारखानें

दूर तट से क्या न होता, कार्य यह भगवान जाने ?


मान लेता हूँ चलो ! मैं, यह सुलभ जल के निकट ही

शुद्ध करके पर रसायन, क्यों न बहते यह कपट ही।


क्यों न विष को शुद्ध करते,पूर्व ही नदियें गमन से

क्यों न विधि से रोक सकते,नदी जल को इस क्षरण से ?


क्यों न हम उपयोग करते, उर्वरक शुचि मात्र जैविक ?

डालते क्यों विष रसायन, नष्ट जल की शक्ति दैविक।


जा मिले ये गंग जल में,नष्ट करते शुचि वनस्पति

शुद्धि कर्मी जीव मरते, रुद्ध इनकी है उपस्थिति।


कोटि जन के प्राण नदी यह,भाव अंतस मे न अब तक

शुद्ध अविरल जल रहे यह,चाव अंतस में न अब तक।


है प्रगति वाँछित हमेशा,किन्तु इसकी शर्त तय हो ?

देश का विन्यास निखरे, किन्तु ये कुछ बोध मय हो।


क्यों बनाते बाँध इतने, रुद्ध नद की धार करते ?

सोचते हम है प्रगति यह,किन्तु खुद पर वार करते।


कर रहे ये कार्य आखिर,सोचिए!किसके लिए हम ?

है प्रशंसित यह प्रगति जब, चैन से कुछ क्षण जिएँ हम।


अंध होकर दौड़ते हम, जिस प्रगति के नाम पर हैं

कूप में गिरते स्वनिर्मित,सोचते हम काम पर हैं। 


क्यों जलाते लाश को हम, मृदु नदी के वंद्य तट पर ?

क्यों बने शव दाह गृह फिर, क्यों अड़े हम व्यर्थ हठ पर ?


क्यों न ज्यादा और शव गृह, अद्य नद तट पर बनाते ?

प्रश्न ऐसे हैं अनेकों, नित्य उत्तर माँगते हैं

क्यों कहें निज हस्त खुद को, मौत मुंह में टाँगते हैं ?


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