समाज व प्रकृति
समाज व प्रकृति
मत छेड़ तू ऐसे मनुज
इस प्रकृति के अंश को,
यह स्वयं आह्वान होगा
समाज के विध्वंस को।
निज स्वार्थ में अंधा हुआ
तू देता चुनौती काल को ,
दे तोड़ मोह के बंधनों को
जैसे भी हो इस हाल को।
प्रकृति के अंश से ही है
अस्तित्व हम सबका यहां
जब प्रकृति तभी हम हैं
हैं भूलते जाते जहां ।
समाज प्रकृति संग संग
एक दूजे का आधार है,
अस्तित्व एक दूजे से है
सादर नमन स्वीकार है।