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Varsha Srivastava

Tragedy

4  

Varsha Srivastava

Tragedy

धरा का विलाप

धरा का विलाप

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बंजर धरा का सुनो विलाप

करो दारुणता पर प्रहार !!


हे मानुष !

उर्वरता मेरी मर रही

तुझे भूख की है पड़ी?

भूजल सारा निकाल लिया

फिर कैसी त्राहि-त्राहि?

काट डाले मेरे अंग,

कर डाली शाखायें विच्छेद

कितने वृक्षों की।

जिनके उजाड़े गये गृह,

चीख-पुकार नहीं सुनी

उन विहंगों की?

पाने के लिए उनकी खाल

तुमने निर्ममता से किये

जानवरों के वध।

बे माँ हुई होंगी उनकी संतान

तुम्हारे व्यापार के लिए।


हे मानुष !

पिघल रहे विशाल हिमखंड,

बढ़ रहा प्रदूषण,

सब तुम्हारे चिन्ता का विषय है।

तुमने अन्धा धुन्ध भोगा मुझे

मेरी कोख में किये वार,

मैं रेड अलर्ट देती हूँ क्योंकि

तुम भी हो मेरी ही संतान।

तुम्हें दे भी दूँ क्षमादान

किन्तु कहाँ से लाऊँ प्राण ?

मेरे रुदन को तुमने

किया है अनसुना

जैसे कर देते हो अपनी

माँ के वक्तव्य को।

एक टुकड़े के लिए मेरे

काट आते हो अपनों को,

तुम्हें तो क़द्र नहीं मेरी

क्यूँ कर आते हो रक्तपात?


हे मानुष !

सुन लो मेरी पुकार !!

क्रोध में मैं भी प्रायः

फट पड़ती हूँ

निगल लेती हूँ तुम्हें,

कभी तैरते-तैरते

बहा देती हूँ तुम्हें।

प्राकृतिक आपदाओं के रूप में

तुम भी देखते होंगे

मेरी लाल आँखें और

तनी भृकुटियाँ,

मैं विवश हो रही हूँ

कर दो मुझे शांत !!


हे मानुष !

सुन लो मेरी बात !!

जो थोड़ा बहुत शेष हैं मुझ में

करो मितव्ययिता से दोहन,

सतत विकास को अपनाओ

बचा लो अपना जीवन ।

मातृ तुम्हारी माँग रही

थोड़ा सा ध्यान ।


हे मानुष !

ले लो थोड़ा संज्ञान !!



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