प्रेम और तितलियाँ
प्रेम और तितलियाँ
प्रेम में पड़कर तितलियाँ
भूल जाती हैं,
बगीचों की डगर।
बीच सफर में भटक कर
ढूँढ़ती हैं,
नेह की देह को।
सुध-बुध से वियुक्त
तितलियाँ चुनती हैं
नये फूल,
सुगन्ध में परिमल हो,
करती हैं
दूसरी तितलियों से बैर।
सुनहरे पंखों वाली
दूसरी तितलियाँ भी
बना लेती हैं दूरी,
प्रेम में पड़ी तितलियाँ
बन जाती हैं कुछ और।
प्रेम और प्रेम के
कायदे से दूर,
तितलियाँ बना लेती हैं
कुछ उसूल।
स्वप्न में खोयी तितलियाँ,
छोड़ आती हैं
यथार्थता को।
तितलियाँ नहीं समझ पाती
प्रेम में निष्ठुर
नहीं होया जाता
औरों से।
प्रेम तो परिचायक हैं
प्रेम के विस्तार का।
फिर जब प्रेम में
ठुकरा दी जाती हैं,
तो यही तितलियाँ
प्रेम को देखती हैं
तीख़ी दृष्टि से।
नये सिरे से गढ़ा जाता हैं
प्रेम के अर्थ को।
भटकते हुए पहुँचती हैं
बगीचे में अपने,
इस बार बाहर निकलने से
सहमी हुई,
तितलियाँ बन्द कर लेती हैं
हृदय के दरवाज़े।
प्रेम दुबारा
दस्तक़ नहीं दे पाता।
क्योंकि उसके अर्थ को
तितलियाँ आज भी
नहीं समझ पायी।