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Ashiqeen Ansari

Tragedy

4.7  

Ashiqeen Ansari

Tragedy

छपाक

छपाक

1 min
305


वो वक्त लाने के लिए घड़ी की सुईयां फिसल गई

एक ज़रूरी काम से घर से मैं निकल गई


आंखों में था काजल और चेहरे पर चमक थी

गुज़री हुई ज़िन्दगी अब तक का वो सबक़ थी


धूप खूब तेज़ थी, चेहरे पर था मेरे नक़ाब

वो रोक ही नहीं पाया जो चेहरे पर आया मेरे तेज़ाब 


आँख का काजल आँख के अंदर ही चला गया

बिना आग लगाए मेरा चेहरा वो जला गया


भाग गया नाक़ाम आशिक़ मैं वहीं पड़ी रही

पहचान लेती मैं शैतान को लेकिन आँख ही नहीं रही


कोई बात रही होगी भीड़ के ये कुछ शक थे

इन्सान की सी सूरत में कुछ खड़े वहाँ नपुंसक थे


घर से क्यों निकली थी मैं हाय क्या मैं कर गई

चेहरा क्या जला मेरा आत्मा ही मर गई


फिर सती हुई थी नारी थी भीड़ देखने वालों की

गलती फेंकने वाले कि कहूँ या तेज़ाब बेचने वालों की


धर्म की कोई बात नहीं, बुरी तो चीज़ साक़ी है

आधी सी बची हूँ मैं आधा सा चेहरा बाक़ी है ।



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