ग्रामीण राजनीति के रैकेट पर शटलकॉक
ग्रामीण राजनीति के रैकेट पर शटलकॉक
वे लोग जो अंधेरे की चारपाई से
उठना नहीं जानते
शताब्दियों की सड़ी गली प्रथा के
दरवाज़े से बाहर निकल कर जिन्हें
आवाज़ उठाना नहीं आता
जीवन की दुपहरी जिनके लिए
पवित्र खून साझा करते हुए
साँझ के तट पर मैली तस्वीर देखते हुए
रो देने की होती है
जिनकी हर रात गुजरती है
अपने राजनेताओं,मालिकों,
दुकानदारों के आगे
हकलाने की प्रसव पीड़ा से
गोबर कंडे बिनते हुए दूर खेत में
जिनकी कल्पना सिमट जाती है
गिड़गिड़ाहट घुड़कियों और सौदेबाजी की
अवसाद जनक पगडंडियों की धूल में
फैसलों की तथाकथित किरण
जिनका रोज गला घोंटती है
रेडियो अखबार से उठती मज़दूर
चिंता पर
फक्क से हँस देते हैं फीकी हँसी
मांग कर लाए हुए छाछ में
अपना भविष्य ढूंढते हुए
ग्रामीण राजनीति के रैकेट पर
शटलकॉक की तरह जीते लोग
वर्षों पुराने कुओं से पुरखों के
अपराध उलच कर
फेंक रहे हैं, प्यास से मरते हुए
गांव में शरण लेने आए
हम अवारवादियों को
मेहमान ठहराते हुए
करबद्ध जो आग्रहपूर्ण हैं
दरअसल यह गांव में
गांव के शरणार्थी हैं
जिनके बैल बूटे,बक्खर,
जमीन, बैलगाड़ी
सब छूट गए हैं अपने ही देश में,
इन्होंने नहीं सीखा किन्तु अभी तक
सीरिया इराक और अफगानिस्तान की
लड़कियों की तरह
देह को देश मानना।