प्रकृति की आह
प्रकृति की आह
इतनी निर्दयता हाय,कहाँ से हो पाती,
प्रकृति खड़ी है मौन,क्यों नहीं रो पाती,
अब एक बार हो,सृष्टि का संहार प्रबल,
तन्मयता से निर्दयता का,प्रतिकार प्रबल।
जीवन दुख से आक्रांत,सदा ही रोता है,
जो चाह रहा है श्रेष्ट,वहीं वो खोता है,
पर वह दीखता है,मौन नहीं है साध सका,
समय काल को,कौन यहाँ है बांध सका।
जीवन के सुखमय क्षण को,तुम याद रखो,
दुख उपज यहीं से रहा,इसे आबाद रखो,
प्राणों से उपज रहा है मोह,तरलता में,
जीवन का श्रेष्ठ छिपा है,सदा सरलता में।
तितली के सुन्दर पंख नहीं,यूं ही खोते,
चपल और चंचल बच्चे,पीछे होते,
हर कारण के पीछे है,काज छिपा होता,
भाग्य सदा ही,अमिट अकाट्य लिखा होता।
अवलम्बन का आश्रय लेकर,कब तक जीवन,
चल रहा विरुद्ध प्रकृति के,कहाँ से सुन्दर मन,
मानव बन भक्षक,आज नर पशु बन बैठा,
पर कहाँ,प्रकृति का कोप,उसे कुछ कर बैठा।
इतनी असहाय सृष्टि,संतुलित हो पाती,
प्रकृति खड़ी है मौन,क्यों नहीं रो पाती।
