जरा याद करो कुर्बानी
जरा याद करो कुर्बानी


भयानक मंजरों के,दौर से,
गुजरा हुआ,अपना वतन,
जालिमों के जूल्म से,
लूटा हुआ है,ये चमन,
बस शिकस्तों पे,शिकस्तों,
का धरा पर,अवतरण,
कुछ शहीदों ने,न्यौछावर,
कर दी अपनी,जान तक।
एक लाठी से चली,
ऐसी हवा की आंधियां,
उड गयी,गोरों की सब,
उम्मीद रुपि अस्थियाँ,
जागरण का रण बजा,
जैसे बिगुल बजता समर में,
उड गये तृण भस्म बन,
नैया फंसी,उनकी भंवर में,
एक गांधी ने सबल हो,
स्वतंत्रता की अग्नि में,
अपनी स्वांस तक,
बलिदान कर दी।।
क्रांतियों की रस्म में,
जज्बे की बहते खून से,
भगत सिंह ने सींच दी,
भारत की,सुन्दर क्यारियाँ,
आजाद बन,ज्वाला समर में,
जालिमों के जूल्म की,
रौंदकर निर्मूल कर दी,
लहलहाती हस्तियां,
क्रोध रुपि अग्नि में,
गोरे जले,बिस्मिल,गुरु के,
फांसी के फंदे को,शहीदों ने,
लहू से सींच दी।
सावरकर,सुभाष और खुदी,
जेहन में कुछ हीं,बस सही,
नाम कुछ हीं,याद हैं,
अफसोस गिनती कम रही,
पर सूर्य को है याद,
तारों के जेहन को,याद है,
याद है अपनी,क्षितिज को,
विस्तृत गगन को याद है,
चांद को भी याद है,
बहते पवन को याद है,
पेड की हर साख को,
लाशों से रिशते खून वो,
गोरों ने जिनको सहज फांसी,
पर चढाया,याद है,
याद है सबको,
हमीं सब भूलते हीं,जा रहे हैं,
अन्न,जल बिल्कुल उन्हीं का,
आजादी से हम,खा रहे हैं।।