शायद उसे ही पिता कहते हैं (नारंगी रंग)
शायद उसे ही पिता कहते हैं (नारंगी रंग)
अपनों को जवान करते करते एक दिन
अपनी मचलती जवानी को पीछे छोड़ देता है
पलक झपकते ही अपनों के बुलंद हौसलों को
चुपके से आसमान की ऊंचाइयों से जोड़ देता है
फिर अपनों के अधूरे सपनों को सवारने में
मुस्कराकर अपनी ही ख्वाहिशों को तोड़ देता है
शायद उसे ही पिता कहते हैं।
रक्त रंजित पाव उसके कभी थकते नहीं थे
अनवरत चलकर भी कर्मयोगी कभी हारता नहीं हैं
अपनी तमाम हसरतों को दफन कर दिया है
मगर अपनों की खुशियों को कभी मारता नहीं है
चेहरे की खामोशियों में दर्द सारे छुपा लेता है
हाथ में दर्पण लेकर खुद को कभी सवारता नहीं है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
थक हार कर शाम को जब काम से लौटता है
अपनों को खुश देखकर बेशुमार खुशियां पाता है
यह रहस्य आज भी एक रहस्य बना हुआ है
वह खामोश चेहरा कब आता है और कब जाता है
कल कितनी रोटियां खाई थी उसे याद नहीं
सुबह से शाम वह तो अपनों के लिए कमाता है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
सब मुस्कुराते रहें कोई भूखा ना रहे घर में
दो जून की रोटी की जुगाड़ में घर से निकलता है
चिलचिलाती धूप हो या हो गर्मी का कहर
मौसम का मिजाज देखकर खुद को बदलता है
जिम्मेदारिययों के बोझ से कंधे झुकने लगे हैं
उलझनभरी राहों में कभी गिरता कभी फिसलता है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
उसकी उंगली पड़कर अपने आगे निकल गए हैं
दौड़ में वह तन्हा था लडखडा कर पीछे छूट गया है
मतलब निकलते ही अपनों ने पल्ला झाड़ लिया
सबके सपने पूरे हुए मगर उसका सपना टूट गया है
खुद को खपाकर दूसरों की झोलियां भरता रहा
उसकी झोली खाली थी अपना ही कोई लूट गया है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
अपनों को छांव में रखा खुद ताउम्र जलता रहा
ऐसा फरिश्ता था सब खुशहाल थे जिसकी परछाई में
एक वक्त ऐसा भी आया जब उम्र ढलने लगी
अपने ही खोजने लगे नुक्स उसकी हर अच्छाई में
जमाने के कितने राज़ दफन हैं उसकी झुर्रियों में
अपनों ने कभी झांका नहीं उसके दर्द की गहराई में
शायद उसे ही पिता कहते हैं
ख्वाबों के तिनकों से जो आशियाना बनाया था
बुढ़ापे की आहट होते ही आज किसी कोने में पड़ा है
सांस थमने लगी हैं तो उसकी अब जरूरत नहीं
भौहें तान कर पथराई आंखों के सामने काल खड़ा है
तनहाई में नैनो से टिप टिप आंसू बहते है अक्सर
कोई नहीं जानता अपनों के लिए जमाने से लड़ा है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
अपनों को जवान करते करते एक दिन
अपनी मचलती जवानी को पीछे छोड़ देता है
पलक झपकते ही अपनों के बुलंद हौसलों को
चुपके से आसमान की ऊंचाइयों से जोड़ देता है
फिर अपनों के अधूरे सपनों को सवारने में
मुस्कराकर अपनी ही ख्वाहिशों को तोड़ देता है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
रक्त रंजित पाव उसके कभी थकते नहीं थे
अनवरत चलकर भी कर्मयोगी कभी हारता नहीं हैं
अपनी तमाम हसरतों को दफन कर दिया है
मगर अपनों की खुशियों को कभी मारता नहीं है
चेहरे की खामोशियों में दर्द सारे छुपा लेता है
हाथ में दर्पण लेकर खुद को कभी सवारता नहीं है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
थक हार कर शाम को जब काम से लौटता है
अपनों को खुश देखकर बेशुमार खुशियां पाता है
यह रहस्य आज भी एक रहस्य बना हुआ है
वह खामोश चेहरा कब आता है और कब जाता है
कल कितनी रोटियां खाई थी उसे याद नहीं
सुबह से शाम वह तो अपनों के लिए कमाता है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
सब मुस्कुराते रहें कोई भूखा ना रहे घर में
दो जून की रोटी की जुगाड़ में घर से निकलता है
चिलचिलाती धूप हो या हो गर्मी का कहर
मौसम का मिजाज देखकर खुद को बदलता है
जिम्मेदारिययों के बोझ से कंधे झुकने लगे हैं
उलझनभरी राहों में कभी गिरता कभी फिसलता है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
उसकी उंगली पड़कर अपने आगे निकल गए हैं
दौड़ में वह तन्हा था लडखडा कर पीछे छूट गया है
मतलब निकलते ही अपनों ने पल्ला झाड़ लिया
सबके सपने पूरे हुए मगर उसका सपना टूट गया है
खुद को खपाकर दूसरों की झोलियां भरता रहा
उसकी झोली खाली थी अपना ही कोई लूट गया है
शायद उसे ही पिता कहते हैं
अपनों को छांव में रखा खुद ताउम्र जलता रहा
ऐसा फरिश्ता था सब खुशहाल थे जिसकी परछाई में
एक वक्त ऐसा भी आया जब उम्र ढलने लगी
अपने ही खोजने लगे नुक्स उसकी हर अच्छाई में
जमाने के कितने राज़ दफन हैं उसकी झुर्रियों में
अपनों ने कभी झांका नहीं उसके दर्द की गहराई में
शायद उसे ही पिता कहते हैं
ख्वाबों के तिनकों से जो आशियाना बनाया था
बुढ़ापे की आहट होते ही आज किसी कोने में पड़ा है
सांस थमने लगी हैं तो उसकी अब जरूरत नहीं
भौहें तान कर पथराई आंखों के सामने काल खड़ा है
तनहाई में नैनो से टिप टिप आंसू बहते है अक्सर
कोई नहीं जानता अपनों के लिए जमाने से लड़ा है
शायद उसे ही पिता कहते हैं।