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Nand Kumar

Inspirational

5  

Nand Kumar

Inspirational

योगीराज चौरंगीनाथ

योगीराज चौरंगीनाथ

6 mins
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चन्दा सोहे शीश पर , काम नशावन हार ।

मोह निशा का नाश कर , ज्ञान दिवस दातार ।।


धरा खाट नभ छत मेरी , ज्ञान रतन भण्डार ।

आशिष तव शिर पर रहे , दीनबन्धु करतार ।।


योग शक्ति पर कुछ लिखूं , अस मन उठा विचार । 

योगेश्वर करिए कृपा , मेरी ओर निहार ।।


अति सुरम्य कौण्डियपुर देशा , नाम शशान्गर तहाँ नरेशा ।

इन्द्र सरिस अति बली भुवाला , रहहि भीत सब दुष्ट कुचाला ।

तासु नारि मंदाकिनि नामा , पतिव्रत धर्म रता निज कामा ।

रिद्धि सिद्धि तहं परम सुहाई , रिक्ति एक संतान न पाई ।

संतति रहित अधिक दुख पावै , बहे अश्रु उर अति अकुलाबै ।

भूपति मन महं करे विचारा , वंश विना धिक् जन्म हमारा ।

हर विनु हरै कष्ट कोउ नाहीं , अस विचारि नृप रानि बुलाई ।

कह द्वौ जन रामेश्वर जाई , करिहौ तप शिव ध्यान लगाई ।

तप कारन द्वौ दंपति गवने , खुले अक्ष देखहि बहु सपने ।

कृष्णा तुंग भद्रा तट आए , परम रम्य तट लखि हरषाए ।


अति पावन तट देखि के , कह अस ह्रदय बिचारि ।

संगम तट पर वास करि , ध्यान धरौ त्रिपुरारि ।।


तेहि तट रहि गुरु प्रभु शिरु नाई , विप्र सन्त गौ करहिं भलाई ।

एक दिवस मज्जन करि नृपवर , आए मित्र सरोवर तट पर ।

शिव लिंग देखि सरोवर तीरा , प्रेम मगन उर अधिक अधीरा ।

लिंग थापि कर शिव कै पूजा , नित्य कर्म कोई काज न दूजा ।

कृष्णा तट पर जाई नहाई , करहिं ध्यान सब काज बिहाई ।

रवि को अर्घ्य देन हित नृपवर , जल लीन्हो जब है अपने कर ।

अर्घ्य समर्पि प्रणाम जो कीन्हा , तव शिशु रुदन श्रवण सुनि लीन्हा ।

बालक देखि बिचारेउ भूपा , दीन्हो हर मोहिं पुत्र अनूपा ।

शिव कर कृपा सुमिरि प्रभुताई , लियो भूप शिशु गोद उठाई ।

लै शिशु मंदाकिनि पहि आए , रखि शिशु अंक वृतांत सुनाए ।


मंदाकिनि की गोद में ,भूप सुतहि जब दीन्ह ।

दूध धार तब बहि चली , हर अहार तेहि दीन्ह ।।


कृष्णा तट सुत भूपति पाबा , कृष्णान्गर तेहि नाम धराबा । 

द्वौ दंपति कृष्णान्गर साथा , कौण्डियपुर आए नरनाथा ।

सुत पाए नृप दान लुटाए , याचक जन पाए हरषाए ।

पुर अति आनन्द छाओ भारी , देखन सुत आए नर नारी ।


दिन सप्ताह मास शक बीते , युवा भयो शिशु शिशुता रीते ।

वर्ष सप्तदश कर जब भयऊ , बधू हेतु नृप मन निरमयऊ ।

मंत्रिन कहा सो सबहि बुलाई, कुंवर युवा वल बुधि अधिकाई।

राज काज सब कुंवर चलाबै , प्रजा बीच निज नेह बढाबै ।

असमय तबहि रानि तनु त्यागा , मातु रहित शिशु भयउ अभागा ।

रानि बिना भूपति अकुलाई , कहां गयीं तुम संग बिहाई ।


श्राद्ध आदि भूपति किए , तिन के बिधि अनुसार ।

भार्या बिन मरघट सदन , जीवन लागै भार ।।


अधिक काम ब्यापेउ जब भूपा , दूसर ब्याह करन अनुरूपा । 

चित्रकूट नृप भुजध्वज रहई , भुजावंति तेहि कन्या अहही । 

तेरह वर्ष तासु वय होई , शिशुता छुटी न यौवन पाई ।

परम रम्य अति सुंदरताई , नयन मनोरम मदन लजाई ।

तेहि ते भूपति परिणय भयऊ,सो नृप को अति रति सुख दयऊ । 

बिबिध भांति भूपति सुखपाबा , मृगया करन हेतु मन लाबा । 

गयउ भूप मृगया के काजा , इहां चहत कछु भयउ अकाजा ।

रूप मनोहर काम लजावन , पुष्ट अंग उर परम सुहावन ।

सृजी नारि बिधि चरित न जाना , कुंवर देखि सो ह्रदय लुभाना। 

लखेउ कुंवर को रानी जब से , काम विवश उर धीर न तबते । 


भुजावंति दासी बुला ,कह पुरबहु मम आश ।

कृष्णान्गर को ला बुला , करिहौ हास विलास ।।


 दासी गयी कुंवर लै आई , कीन्ह प्रणाम मातु शिर नाई ।

कर गहि तब निज ढिग बैठारी , कारी नागिन इव हुंकारी। 

कह तुमहू यह जानत अहहू , जनक तुम्हार बूढ़ अति भयउ ।

सो न सकइ करि पूरित आशा , भयउ मोर यौवन कर नाशा ।


यहि कारन हम तोहि बुलाबा , करहु भोग मोरे मन आबा ।

पुत्र करहि अस जे कोइ काजा , तेहि ते आबहि लाजहु लाजा।

कहत बचन मुख भयी न पीरा , कटी जीभ तन परेउ न कीरा ।

कर को झटकि तजेउ प्रासादा , आए निज गृह ह्रदय विषादा ।

इहां कुटिल अस ह्रदय बिचारा , नृप से खुले न भेद हमारा ।

या ते अधिक भीत अकुलाई , तब अस जुगति दासि बतलाई ।


कह दासी सुनु स्वामिनी , त्रिया चरित दिखलाव ।

मम सतीत्व लूटन चहे , पुत्र पितहि बतलाव ।।


 करि शिकार जब भूपति आए , भुजावंति निज चरित दिखाए।

छिन्न-भिन्न करि वसन श्रृंगारा , अरुण नयन बरषै जलधारा।

देखि भूप सो गयउ सुखाई , कम्पित गात बदन थर्राई ।

भुजावंति से बोलेउ बानी , केहि कारण तुम रहहु रिसानी ।

कहेउ सुनहु मम जीवननाथा , राखि न जाई लाज निज हाथा।

सुत तुम्हार कृष्णान्गर नामा , जानि सुअवसर लै मन कामा ।

आयहु ढिग मम करन कुचालू , जानेउ नहि गृह आजु भुवालू ।

अगणित भांति ताहि समुझावा , कामी ह्रदय ज्ञान नहि आबा ।

गो सम मोहिं हरि सम निज जानी , बाहुपाश दृढ बांधेउ मानी ।

तेहि अवसर तहं दासी आई , तेहि भय भज्यो तबहि बचि पाई।


कृष्णान्गर नें ही किया , है मेरा यह हाल ।

ऐसे कामी के जियत , केहि बिधि रहा भुवाल ।।


भूपति जबहि सुनेउ यह काना , परम क्रोध नृप ह्रदय समाना ।

रीतेउ नेह बढेउ अति रोषा , मिलहि दण्ड अब नहि परितोषा ।

तबहि भूप निज सचिब बुलाबा,कर पग खण्डन हुकुम सुनाबा।

कृष्णान्गर लै भृत्य सिधाए , तेहि श्मशान राखि पुनि आए।

 बिबिध भांति भूपति समुझावा ,मान न क्रोध अहित करबाबा।

भये दुखित सब सहित समाजा,कहि न सकत कछु भय से राजा ।

तब सेबक श्मसानहि आए , काटि अंग चौरंग बैठाए ।

खग पशु जङ चेतन नर नारी , देखि दृश्य यह भयउ दुखारी ।

शोक विवश आए सब पासा , धिक् नृप जो है कीन्हेउ नाशा ।

मन ही मन मनाब धरि धीरा , प्रभु तुम हरहु कुंवर कै पीरा ।


भंजि बाहु पग सेबक ,ताहि तहां तजि दीन्ह ।

हर इच्छा बलवंत है , सब उसके आधीन ।।


भाग्य वश तब तेहि पुर माहीं , आए नाथ मछेन्द्र गोसाईं ।

गोरखनाथ शिष्य तिन साथा , सुनी श्रवण कृष्णान्गर गाथा।

करत ध्यान सब भेदहि जाना , द्रवेउ ह्रदय नवगीत समाना ।

चौरंग पर लखि मछेन्द्र नाथा , धरेउ नाम तेहि चौरंग नाथा ।

दया लागि निज गोद उठाई , बदरिक आश्रम पहुंचे जाई ।

तब गोरख से गुरु अस कहेऊ, नाथ पंथ यहि शिक्षा दयऊ । 

सकल सिद्धि अरु ज्ञान सिखाबहु , योगी चौरंग नाथ बनाबहु।

तब गोरख मन कीन्ह बिचारा , तप सामर्थ्य पाव को पारा ।

गिरि कन्दरा ताहि लै आए , उपल शिला नीचे बैठाए ।

तप बल शिर पर शिला उङाई , फिरि गोरख बोले समझाई ।


शिर के ऊपर जो शिला , तेहि पर दृष्टि जमाव ।

मन्त्र देत सो तुम जपौ , हर कै ध्यान लगाव ।।


ध्यान भंग जो हो तुम्हारा , गिरइ शिला होइ जीवन क्षारा ।

तासो धरि मन हर के चरना , नाम तासु सब संकट हरना ।

देकर मन्त्र गुहा से आई , गुहा द्वार दइ शिला लगाई ।

करि आह्वान चामुण्डा केरा , कहा करौ चौरंग पहि फेरा ।

नित प्रति तहं आहार पहुंचाई , चौरंग क्षुधा मिटाबहु आई ।

यहि प्रकार तिन को समुझाई , तीर्थाटन को चले हरषाई ।

गुरु मछेन्द्र अरु गोरख नाथा , निज जमात को लेकर साथा ।

भ्रमत सबहि प्रयाग नियराने , शिव मंदिर ढिग सब ठहराने ।

नाम तिविक्रम तहं कर राजा , गयउ छांङि के सकल समाजा ।

शोक विकल सब पुरजन भारी, करहिं रुदन सब होश बिसारी।


देखेउ गोरख नें तहां , दुखमय सकल समाज ।

 कहा संत हूं मैं करूं , अब पर हित का काज ।।


गोरख तब निज गुरू सन भाषा,पुरबहु नाथ दुखित कर आशा ।

जीवन दान भूप का देहू , नाथ आप जग में यश लेहू ।

दुखमय शिष्य देखि निज सोई , गुरु समुझाव न सम्भव होई ।

तब गोरख अस बचन उचारा , परहित बिनु धिक् जन्म हमारा।


जो नहिं नृप जीवित करि पावों , तो हमहू निज देह नशावौ ।

तव गुरु धरि देखेउ निज ध्याना , व्रम्हलीन भयू नृप यह जाना ।

व्रम्हलीन प्राणी जो होई , देइ न सकत जीवन तेहि कोई ।

शिष्य प्रतिज्ञा का करि ध्याना , करन तासु जीवित अनुमाना ।

व्रम्हलीन भूपति अब भयउ , द्वादश वर्ष प्रविशि तन रहऊं ।

यहि प्रकार नृप जीवित होई , अन्य उपाय न दूसर कोई ।


करहि वास मम प्रेत सुनु , गोरख भूपति देह ।

तुम सम्भाल तन की करौ , पुनि आवौ यहि गेह।।


गुरु मछेन्द्र तहं निज तन त्यागा , प्रविशे प्रान मनहु नृप जागा ।

अचरज लखि तब दीन दुखारे , भूप पाइ पुनि भये सुखारे ।

उठे भूप पुर हर्ष समायो , पुलक गात उर शआनन्द छायो ।

स्वर्ण मूर्ति नृप की बनबाई , परिजन अंत्य क्रिया करबाई ।

गोरख निज गुरु देह उठाए , शिव सेविका निकट चलि आए ।

सकल कथा तेहि जाइ सुनाई , तिन सो गिरि कन्दरा दिखाई ।

तब गिरि गुहा राखि गुरु देही , आए निकट भूप गुरु जेही ।

मांगि बिदा नृप चलत सुहाए , बद्रीधाम निकट पुनि आए ।

तब गिरि गुहा गवन सो कीन्हा , चौरंग जहां ध्यान आसीना ।

देख न सूखेउ सकल आहारा , कृष तन भयउ न जीवन क्षारा ।


मन्त्र और एकाग्र तप , का अस भयउ प्रभाव । 

कर पग पुनि आए सब , लखि गोरख सुखु पाव ।।


योग कला बहुभांति सिखाई , शक्तिवन्त चौरंगहि बनाई ।

भ्रमत -भ्रमत कौण्डियपुर आए , भूप शशान्गर जहां सुहाए ।

राजवाटिका में ठहराने , तब  गोरख मन मेें मुसुकाने ।

योग शक्ति से भोग नशावौ , नृप कर सबही मान मिटावौ ।

अस विचारि आज्ञा तेहि दीन्ही , चौरंग शक्ति प्रदर्शित कीन्ही ।

वात मन्त्र पढि रेणु उठाई , चले मरुत उन्चास हुंकाई ।

खण्ड-खण्ड होई तरु भू परही , माली उङइ भूमि पुनि गिरई ।

दशा देखि नर नारि भयातुर , नृप से कही बात अति आतुर ।

लै गज लश्कर भूप सिधाए , निज वाटिका निकट चलि आए । 

आवत सेन करहि धुनि घोरा , कंपेउ दिशा धरनि चहुंओरा ।


चौरंग नें अस देखि के , लश्कर दियो उङाय । 

उलटि पलटि सो गगन में , गिरो मही पर आय ।।


जब अस देखेउ पुरजन हाला , विनय कीन्ह तव जाइ भुवाला ।

गोरख नृप के चरण छुआए , चौरंग पितु को शीश नवाएं ।

भूप ताहि तबहू नहिं जाना , गोरख पूरब चरित बखाना ।

जेहि सुत के तुम अंग कटाए , सोई तव सुत हम लै आए ।

भुजावंति का चरित बखाना , सुनि भुवाल है बहुत लगाना ।

भूप नारि को तुरत बुलाई , पुर से  निष्कासित करबाई। 

गोरख कह सुनिए नरनाथा , सुख दुख जीवन प्रभु के हाथा ।

अतः आप निज शोक बिहाई , करहु प्रजा की सदा भलाई ।

बुद्धि विवेक नीति अरू धर्मा , पालि बनहु तुम भूप सुकर्मा ।


सांसारिक सुख की नहीं , है चौरंग को चाह ।

योग भक्ति वैराग्य की , पाई पावन राह ।।


गुरु गोरख की सीख लै , कीन्हेउ योग अखण्ड ।

सात द्वीप नौ खण्ड में , छाया योग प्रचण्ड ।।


भोगी चाहे  भोग  अरु , योगी चाहे योग ।

बन्धनकारी भोग हैं , मुक्त कराबै योग ।। 


ऋषियों के पावन चरण , में हो मेरा वास ।

ज्ञान सुधा बूंदें पङे , हो मलीनता नाश ।।


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