योगीराज चौरंगीनाथ
योगीराज चौरंगीनाथ
चन्दा सोहे शीश पर , काम नशावन हार ।
मोह निशा का नाश कर , ज्ञान दिवस दातार ।।
धरा खाट नभ छत मेरी , ज्ञान रतन भण्डार ।
आशिष तव शिर पर रहे , दीनबन्धु करतार ।।
योग शक्ति पर कुछ लिखूं , अस मन उठा विचार ।
योगेश्वर करिए कृपा , मेरी ओर निहार ।।
अति सुरम्य कौण्डियपुर देशा , नाम शशान्गर तहाँ नरेशा ।
इन्द्र सरिस अति बली भुवाला , रहहि भीत सब दुष्ट कुचाला ।
तासु नारि मंदाकिनि नामा , पतिव्रत धर्म रता निज कामा ।
रिद्धि सिद्धि तहं परम सुहाई , रिक्ति एक संतान न पाई ।
संतति रहित अधिक दुख पावै , बहे अश्रु उर अति अकुलाबै ।
भूपति मन महं करे विचारा , वंश विना धिक् जन्म हमारा ।
हर विनु हरै कष्ट कोउ नाहीं , अस विचारि नृप रानि बुलाई ।
कह द्वौ जन रामेश्वर जाई , करिहौ तप शिव ध्यान लगाई ।
तप कारन द्वौ दंपति गवने , खुले अक्ष देखहि बहु सपने ।
कृष्णा तुंग भद्रा तट आए , परम रम्य तट लखि हरषाए ।
अति पावन तट देखि के , कह अस ह्रदय बिचारि ।
संगम तट पर वास करि , ध्यान धरौ त्रिपुरारि ।।
तेहि तट रहि गुरु प्रभु शिरु नाई , विप्र सन्त गौ करहिं भलाई ।
एक दिवस मज्जन करि नृपवर , आए मित्र सरोवर तट पर ।
शिव लिंग देखि सरोवर तीरा , प्रेम मगन उर अधिक अधीरा ।
लिंग थापि कर शिव कै पूजा , नित्य कर्म कोई काज न दूजा ।
कृष्णा तट पर जाई नहाई , करहिं ध्यान सब काज बिहाई ।
रवि को अर्घ्य देन हित नृपवर , जल लीन्हो जब है अपने कर ।
अर्घ्य समर्पि प्रणाम जो कीन्हा , तव शिशु रुदन श्रवण सुनि लीन्हा ।
बालक देखि बिचारेउ भूपा , दीन्हो हर मोहिं पुत्र अनूपा ।
शिव कर कृपा सुमिरि प्रभुताई , लियो भूप शिशु गोद उठाई ।
लै शिशु मंदाकिनि पहि आए , रखि शिशु अंक वृतांत सुनाए ।
मंदाकिनि की गोद में ,भूप सुतहि जब दीन्ह ।
दूध धार तब बहि चली , हर अहार तेहि दीन्ह ।।
कृष्णा तट सुत भूपति पाबा , कृष्णान्गर तेहि नाम धराबा ।
द्वौ दंपति कृष्णान्गर साथा , कौण्डियपुर आए नरनाथा ।
सुत पाए नृप दान लुटाए , याचक जन पाए हरषाए ।
पुर अति आनन्द छाओ भारी , देखन सुत आए नर नारी ।
दिन सप्ताह मास शक बीते , युवा भयो शिशु शिशुता रीते ।
वर्ष सप्तदश कर जब भयऊ , बधू हेतु नृप मन निरमयऊ ।
मंत्रिन कहा सो सबहि बुलाई, कुंवर युवा वल बुधि अधिकाई।
राज काज सब कुंवर चलाबै , प्रजा बीच निज नेह बढाबै ।
असमय तबहि रानि तनु त्यागा , मातु रहित शिशु भयउ अभागा ।
रानि बिना भूपति अकुलाई , कहां गयीं तुम संग बिहाई ।
श्राद्ध आदि भूपति किए , तिन के बिधि अनुसार ।
भार्या बिन मरघट सदन , जीवन लागै भार ।।
अधिक काम ब्यापेउ जब भूपा , दूसर ब्याह करन अनुरूपा ।
चित्रकूट नृप भुजध्वज रहई , भुजावंति तेहि कन्या अहही ।
तेरह वर्ष तासु वय होई , शिशुता छुटी न यौवन पाई ।
परम रम्य अति सुंदरताई , नयन मनोरम मदन लजाई ।
तेहि ते भूपति परिणय भयऊ,सो नृप को अति रति सुख दयऊ ।
बिबिध भांति भूपति सुखपाबा , मृगया करन हेतु मन लाबा ।
गयउ भूप मृगया के काजा , इहां चहत कछु भयउ अकाजा ।
रूप मनोहर काम लजावन , पुष्ट अंग उर परम सुहावन ।
सृजी नारि बिधि चरित न जाना , कुंवर देखि सो ह्रदय लुभाना।
लखेउ कुंवर को रानी जब से , काम विवश उर धीर न तबते ।
भुजावंति दासी बुला ,कह पुरबहु मम आश ।
कृष्णान्गर को ला बुला , करिहौ हास विलास ।।
दासी गयी कुंवर लै आई , कीन्ह प्रणाम मातु शिर नाई ।
कर गहि तब निज ढिग बैठारी , कारी नागिन इव हुंकारी।
कह तुमहू यह जानत अहहू , जनक तुम्हार बूढ़ अति भयउ ।
सो न सकइ करि पूरित आशा , भयउ मोर यौवन कर नाशा ।
यहि कारन हम तोहि बुलाबा , करहु भोग मोरे मन आबा ।
पुत्र करहि अस जे कोइ काजा , तेहि ते आबहि लाजहु लाजा।
कहत बचन मुख भयी न पीरा , कटी जीभ तन परेउ न कीरा ।
कर को झटकि तजेउ प्रासादा , आए निज गृह ह्रदय विषादा ।
इहां कुटिल अस ह्रदय बिचारा , नृप से खुले न भेद हमारा ।
या ते अधिक भीत अकुलाई , तब अस जुगति दासि बतलाई ।
कह दासी सुनु स्वामिनी , त्रिया चरित दिखलाव ।
मम सतीत्व लूटन चहे , पुत्र पितहि बतलाव ।।
करि शिकार जब भूपति आए , भुजावंति निज चरित दिखाए।
छिन्न-भिन्न करि वसन श्रृंगारा , अरुण नयन बरषै जलधारा।
देखि भूप सो गयउ सुखाई , कम्पित गात बदन थर्राई ।
भुजावंति से बोलेउ बानी , केहि कारण तुम रहहु रिसानी ।
कहेउ सुनहु मम जीवननाथा , राखि न जाई लाज निज हाथा।
सुत तुम्हार कृष्णान्गर नामा , जानि सुअवसर लै मन कामा ।
आयहु ढिग मम करन कुचालू , जानेउ नहि गृह आजु भुवालू ।
अगणित भांति ताहि समुझावा , कामी ह्रदय ज्ञान नहि आबा ।
गो सम मोहिं हरि सम निज जानी , बाहुपाश दृढ बांधेउ मानी ।
तेहि अवसर तहं दासी आई , तेहि भय भज्यो तबहि बचि पाई।
कृष्णान्गर नें ही किया , है मेरा यह हाल ।
ऐसे कामी के जियत , केहि बिधि रहा भुवाल ।।
भूपति जबहि सुनेउ यह काना , परम क्रोध नृप ह्रदय समाना ।
रीतेउ नेह बढेउ अति रोषा , मिलहि दण्ड अब नहि परितोषा ।
तबहि भूप निज सचिब बुलाबा,कर पग खण्डन हुकुम सुनाबा।
कृष्णान्गर लै भृत्य सिधाए , तेहि श्मशान राखि पुनि आए।
बिबिध भांति भूपति समुझावा ,मान न क्रोध अहित करबाबा।
भये दुखित सब सहित समाजा,कहि न सकत कछु भय से राजा ।
तब सेबक श्मसानहि आए , काटि अंग चौरंग बैठाए ।
खग पशु जङ चेतन नर नारी , देखि दृश्य यह भयउ दुखारी ।
शोक विवश आए सब पासा , धिक् नृप जो है कीन्हेउ नाशा ।
मन ही मन मनाब धरि धीरा , प्रभु तुम हरहु कुंवर कै पीरा ।
भंजि बाहु पग सेबक ,ताहि तहां तजि दीन्ह ।
हर इच्छा बलवंत है , सब उसके आधीन ।।
भाग्य वश तब तेहि पुर माहीं , आए नाथ मछेन्द्र गोसाईं ।
गोरखनाथ शिष्य तिन साथा , सुनी श्रवण कृष्णान्गर गाथा।
करत ध्यान सब भेदहि जाना , द्रवेउ ह्रदय नवगीत समाना ।
चौरंग पर लखि मछेन्द्र नाथा , धरेउ नाम तेहि चौरंग नाथा ।
दया लागि निज गोद उठाई , बदरिक आश्रम पहुंचे जाई ।
तब गोरख से गुरु अस कहेऊ, नाथ पंथ यहि शिक्षा दयऊ ।
सकल सिद्धि अरु ज्ञान सिखाबहु , योगी चौरंग नाथ बनाबहु।
तब गोरख मन कीन्ह बिचारा , तप सामर्थ्य पाव को पारा ।
गिरि कन्दरा ताहि लै आए , उपल शिला नीचे बैठाए ।
तप बल शिर पर शिला उङाई , फिरि गोरख बोले समझाई ।
शिर के ऊपर जो शिला , तेहि पर दृष्टि जमाव ।
मन्त्र देत सो तुम जपौ , हर कै ध्यान लगाव ।।
ध्यान भंग जो हो तुम्हारा , गिरइ शिला होइ जीवन क्षारा ।
तासो धरि मन हर के चरना , नाम तासु सब संकट हरना ।
देकर मन्त्र गुहा से आई , गुहा द्वार दइ शिला लगाई ।
करि आह्वान चामुण्डा केरा , कहा करौ चौरंग पहि फेरा ।
नित प्रति तहं आहार पहुंचाई , चौरंग क्षुधा मिटाबहु आई ।
यहि प्रकार तिन को समुझाई , तीर्थाटन को चले हरषाई ।
गुरु मछेन्द्र अरु गोरख नाथा , निज जमात को लेकर साथा ।
भ्रमत सबहि प्रयाग नियराने , शिव मंदिर ढिग सब ठहराने ।
नाम तिविक्रम तहं कर राजा , गयउ छांङि के सकल समाजा ।
शोक विकल सब पुरजन भारी, करहिं रुदन सब होश बिसारी।
देखेउ गोरख नें तहां , दुखमय सकल समाज ।
कहा संत हूं मैं करूं , अब पर हित का काज ।।
गोरख तब निज गुरू सन भाषा,पुरबहु नाथ दुखित कर आशा ।
जीवन दान भूप का देहू , नाथ आप जग में यश लेहू ।
दुखमय शिष्य देखि निज सोई , गुरु समुझाव न सम्भव होई ।
तब गोरख अस बचन उचारा , परहित बिनु धिक् जन्म हमारा।
जो नहिं नृप जीवित करि पावों , तो हमहू निज देह नशावौ ।
तव गुरु धरि देखेउ निज ध्याना , व्रम्हलीन भयू नृप यह जाना ।
व्रम्हलीन प्राणी जो होई , देइ न सकत जीवन तेहि कोई ।
शिष्य प्रतिज्ञा का करि ध्याना , करन तासु जीवित अनुमाना ।
व्रम्हलीन भूपति अब भयउ , द्वादश वर्ष प्रविशि तन रहऊं ।
यहि प्रकार नृप जीवित होई , अन्य उपाय न दूसर कोई ।
करहि वास मम प्रेत सुनु , गोरख भूपति देह ।
तुम सम्भाल तन की करौ , पुनि आवौ यहि गेह।।
गुरु मछेन्द्र तहं निज तन त्यागा , प्रविशे प्रान मनहु नृप जागा ।
अचरज लखि तब दीन दुखारे , भूप पाइ पुनि भये सुखारे ।
उठे भूप पुर हर्ष समायो , पुलक गात उर शआनन्द छायो ।
स्वर्ण मूर्ति नृप की बनबाई , परिजन अंत्य क्रिया करबाई ।
गोरख निज गुरु देह उठाए , शिव सेविका निकट चलि आए ।
सकल कथा तेहि जाइ सुनाई , तिन सो गिरि कन्दरा दिखाई ।
तब गिरि गुहा राखि गुरु देही , आए निकट भूप गुरु जेही ।
मांगि बिदा नृप चलत सुहाए , बद्रीधाम निकट पुनि आए ।
तब गिरि गुहा गवन सो कीन्हा , चौरंग जहां ध्यान आसीना ।
देख न सूखेउ सकल आहारा , कृष तन भयउ न जीवन क्षारा ।
मन्त्र और एकाग्र तप , का अस भयउ प्रभाव ।
कर पग पुनि आए सब , लखि गोरख सुखु पाव ।।
योग कला बहुभांति सिखाई , शक्तिवन्त चौरंगहि बनाई ।
भ्रमत -भ्रमत कौण्डियपुर आए , भूप शशान्गर जहां सुहाए ।
राजवाटिका में ठहराने , तब गोरख मन मेें मुसुकाने ।
योग शक्ति से भोग नशावौ , नृप कर सबही मान मिटावौ ।
अस विचारि आज्ञा तेहि दीन्ही , चौरंग शक्ति प्रदर्शित कीन्ही ।
वात मन्त्र पढि रेणु उठाई , चले मरुत उन्चास हुंकाई ।
खण्ड-खण्ड होई तरु भू परही , माली उङइ भूमि पुनि गिरई ।
दशा देखि नर नारि भयातुर , नृप से कही बात अति आतुर ।
लै गज लश्कर भूप सिधाए , निज वाटिका निकट चलि आए ।
आवत सेन करहि धुनि घोरा , कंपेउ दिशा धरनि चहुंओरा ।
चौरंग नें अस देखि के , लश्कर दियो उङाय ।
उलटि पलटि सो गगन में , गिरो मही पर आय ।।
जब अस देखेउ पुरजन हाला , विनय कीन्ह तव जाइ भुवाला ।
गोरख नृप के चरण छुआए , चौरंग पितु को शीश नवाएं ।
भूप ताहि तबहू नहिं जाना , गोरख पूरब चरित बखाना ।
जेहि सुत के तुम अंग कटाए , सोई तव सुत हम लै आए ।
भुजावंति का चरित बखाना , सुनि भुवाल है बहुत लगाना ।
भूप नारि को तुरत बुलाई , पुर से निष्कासित करबाई।
गोरख कह सुनिए नरनाथा , सुख दुख जीवन प्रभु के हाथा ।
अतः आप निज शोक बिहाई , करहु प्रजा की सदा भलाई ।
बुद्धि विवेक नीति अरू धर्मा , पालि बनहु तुम भूप सुकर्मा ।
सांसारिक सुख की नहीं , है चौरंग को चाह ।
योग भक्ति वैराग्य की , पाई पावन राह ।।
गुरु गोरख की सीख लै , कीन्हेउ योग अखण्ड ।
सात द्वीप नौ खण्ड में , छाया योग प्रचण्ड ।।
भोगी चाहे भोग अरु , योगी चाहे योग ।
बन्धनकारी भोग हैं , मुक्त कराबै योग ।।
ऋषियों के पावन चरण , में हो मेरा वास ।
ज्ञान सुधा बूंदें पङे , हो मलीनता नाश ।।