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Kavita Verma

Inspirational

3.9  

Kavita Verma

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वह औरत

वह औरत

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वह औरत 

जो सिर्फ एक औरत थी 


वह औरत 

जब बन कर आई थी बहू 

धान का कलश छलका कर 

किया था ग्रह प्रवेश 

उसी दिन उसी समय से 

बन गई वह घर की 

समृद्धि की दारोमदार 


कभी दूध में कटौती कर 

कभी बच्चों की थाली में 

बची सब्जी से संतुष्टि कर 

जतन से छुपा कर पहनती रही 

बाँह से फटे ब्लाउज

सिकोड़ती रही अपने पैर 

ताकि चादर बनी रहे 

पर्याप्त लंबी ताकि

सब पसार सकें अपने पैर 


बड़े चाव से  

जोड़े गए पैसों से खरीदी 

लाल किनारी की वह साड़ी 

हल्दी कुंकुम का तिलक लगा 

कर दी भेंट छूकर चरण 

यूँ ही भाई से मिलने आई 

ननद को 

उसके हाथ सहेज रहे थे 

द्वार पर बिखरे वो धान कण

इस घर की समृद्धि 

कभी न हो कम 

न जाए बहन बेटी कभी 

खाली हाथ 


वह औरत 

करती रही मामेरा 

मुंह दिखाई, मंडप, 

चीगट सूरज पूजा 

अनसुने कर सब विरोध 

और गुनती रही 

माँ और सास के आशीर्वचन 

टटोलती रही अपने सर पर 

उनका हाथ

 कि दोनों घर की लाज 

निभाना है उसे 

न कम होने दिया 

मान उसने कहीं भी। 


वह औरत 

छुपा कर अपने घुटनों 

कमर का दर्द 

करती रही पैरवी 

अब के एक और गाय लेने की 

कि छुटके की बहू और बेटी की 

जचकी है साथ-साथ 

कि अब दो और घर हैं 

बनाए रखने को मान। 


कर के विरोध 

घर परिवार रिश्तेदार 

पति और खुद के बेटों का 

भेजा बेटी को शहर 

पढ़ी लिखी बहू को 

बाहर नौकरी पर 


बिना शिकायत संभालती रही 

घर, अपनी उम्र की 

थकान को छुपाते हुए 

वह औरत मनाती रही 

महिला सशक्ति वर्ष जीवन पर्यंत


वह औरत 

जिसने न पाए 

कहीं कोई इनाम 

न बनाया महिला दिवस 

न उठाया सिर कभी 

अपने अधिकारों के लिए 

पर बनी रही 

सब के आदर का केंद्र बिंदु 

संभाले रही खिताब 

माँ सास बहू 

बहन बुआ मामी 

अम्माजी काकी का 

मनाती रही महिला दिवस 

अपनी जिंदगी के हर दिन हर पल।


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