संवेदनशील
संवेदनशील
स्वप्न से भी दूर वो दिन
साथ हँसने- गाने के
छोटी- बड़ी हर ख़ुशी
मिलकर संग मनाने के
विपदा की घड़ी में खासकर
एकजुटता दिखाने के
आजकल अपने आप तक
सारे सीमित हो गए हैं
क्या कहे साहब.....!
मशीनों से दिन- रात खेलते
लगता है ..खुद भी मशीन हो गए हैं।
दोस्त सारे बिछड़ गए
जो हैं फेसबुक पर मिलते हैं
हर रोज ट्वीटरइंस्टाग्राम और
व्हाट्सप पर गुम रहते हैं
दुनिया की बेतुकी वीडियो
बिन सोचे फॉरवर्ड करते हैं
हद है मातमी खबरें भी
लाईक और शेयर करते हैं
पोस्ट तो मेरी सराहते हैं
मिलने में संकीर्ण हो गए
सोशल मीडिया तक सारे
जाने क्यूँ परिमित हो गए
इंटरनेट से दिन-रात खेलते
लगता है निर्जीव हो गए।
चारो तरफ चकाचौंध
शोरगुलतमाशा है
खोखली हँसी बाहर
भीतर पसरा सन्नाटा है
चतुराई में अंदर से आदमी
लगता कुछ ठगा सा है
जीवन की आपाधापी मे
कुछ तो छुट गया सा है
खुद को बेहतर दिखाने में
खुद मे हीं विलीन हो गए
सबकुछ सबके पास है फिर भी
लगता है कि दीन हो गए
पता नहीं पर लगता है मुझको
अब हम मित्रविहीन हो गए।
बेटी बचाओ अभियान
फ़िर भी अस्मत लुटती है
कई अजन्मी नन्ही परी
कोख में हीं मरती है
दहेज घोर अपराध
जाने बहू क्यूँ जलती है
देश तोड़ने के नारे
विद्यामंदिर में गुंजती हैं
जनतंत्र मे भीड़तंत्र
सजा देने मे लीन हो गए
मेरा दिल कहता है हम
तन-मन से शिथिल हो गए
कभी- कभी तो डर लगता है
शायद ! हम संवेदनहीन हो गए।
भारत के भावी भविष्य
सुनो अनुरोध हमारी
वंशज तुम स्वप्निल माटी के
संस्कृति समृद्ध तुम्हारी
अब कोई विलंब न हो
अविलंब सुशील बनो
प्राचीन को नवीन बनाओ
प्रगतिशील संवेदनशील बनो।
