सोचा न था...!
सोचा न था...!
तारीखें लौट आयेंगी,
पर वो नहीं
जो खो दिया हमने,
खोने का क्रम अविराम
चलता रहेगा, सोचा न था।
समाजिक होने का मानव स्वभाव,
साथ रहने, काम करने की फितरत,
हाथ मिलाकर, गले लगाकर
स्वागत की, पुरानी रवायत
दुनिया को इतनी महंगी पड़ेगी,
सोचा न था।
सोशल होगी डिस्टेनसिंग,
मिलने मिलाने की
हमारी जन्मजात प्रवृत्ति
से महरूम कर सकता है,
एक वायरस भी, सोचा न था।
कभी शगुन-अपशगुन का संदेश,
तो किसी की याद में आने वाली
स्वाभाविक छींके,
कभी एक दूसरे से
दूरी ला देगी, सोचा न था।
बूढ़े बुजुर्गों के
खांसकर
अंदर आने का शिष्टाचार,
महामारी का सबब
बन जायेगी,सोचा न था।
गाहे-बगाहे, जाड़े का
अहसास देने वाली मामूली
बुखार
कभी डराने लगेगी, सोचा न था।
बीमारी मरीज़ ही नहीं,
संबंधों को भी मार देगी,
स्वजन, संबंधी
की मौत पर
अंतिम दर्शन
अंतिम संस्कार
से इंकार
कर देंगे लोग,सोचा न था।
माता-पिता संग समय गुजारना,
टीवी, मोबाइल की दुनिया से दूर
दादा-दादी से बच्चों के खेलने
कहानियाँ सुनने
का दौर
पुनर्जीवित हो उठेगा,
सोचा न था।
स्वच्छता-पर्यावरण पर
दुनिया का जोर,
करोड़ों का खर्च रोज,
सबक सीख जायेंगे पल में,
सोचा न था।
बचत का वाज़िब अभिप्राय,
कष्ट में सहयोग का भाव,
प्रवासियों को घर पहुँचाना
ज़रूरतमंद को खाना खिलाना
समाज से दूर होकर भी
समाजिकता, जिंदा रहेगी
सोचा न था .... !