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कुमार जितेन्द्र

Abstract

4.0  

कुमार जितेन्द्र

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सोचा न था...!

सोचा न था...!

2 mins
39


तारीखें लौट आयेंगी,

पर वो नहीं

जो खो दिया हमने,

खोने का क्रम अविराम

चलता रहेगा, सोचा न था।

समाजिक होने का मानव स्वभाव,

साथ रहने, काम करने की फितरत,

हाथ मिलाकर, गले लगाकर

स्वागत की, पुरानी रवायत

दुनिया को इतनी महंगी पड़ेगी,

सोचा न था।

सोशल होगी डिस्टेनसिंग,

मिलने मिलाने की

हमारी जन्मजात प्रवृत्ति

से महरूम कर सकता है,

एक वायरस भी, सोचा न था।

कभी शगुन-अपशगुन का संदेश,

तो किसी की याद में आने वाली

स्वाभाविक छींके,

कभी एक दूसरे से

दूरी ला देगी, सोचा न था।

बूढ़े बुजुर्गों के

खांसकर

अंदर आने का शिष्टाचार,

महामारी का सबब

बन जायेगी,सोचा न था।

गाहे-बगाहे, जाड़े का

अहसास देने वाली मामूली

बुखार

कभी डराने लगेगी, सोचा न था।

बीमारी मरीज़ ही नहीं,

संबंधों को भी मार देगी,

स्वजन, संबंधी 

की मौत पर

अंतिम दर्शन

अंतिम संस्कार

से इंकार

कर देंगे लोग,सोचा न था।

माता-पिता संग समय गुजारना,

टीवी, मोबाइल की दुनिया से दूर

दादा-दादी से बच्चों के खेलने

कहानियाँ सुनने

का दौर

पुनर्जीवित हो उठेगा,

सोचा न था।

स्वच्छता-पर्यावरण पर

दुनिया का जोर,

करोड़ों का खर्च रोज,

सबक सीख जायेंगे पल में,

सोचा न था।

बचत का वाज़िब अभिप्राय,

कष्ट में सहयोग का भाव,

प्रवासियों को घर पहुँचाना

ज़रूरतमंद को खाना खिलाना

समाज से दूर होकर भी

समाजिकता, जिंदा रहेगी

सोचा न था .... ! 


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