मिला, जो मांगा था !
मिला, जो मांगा था !
दरवाजे की घंटी बजी
साथ ही सारे घर में क़र्फ्यू सा
सन्नाटा पसर गया हमेशा की तरह ,
हफ़्ते बाद दौरे से लौटकर आये थे पापा
जैसा अक्सर होता था, इस बार
हमारे लिये खिलौने, मिठाई या
मम्मी की साड़ी का कोई पैकेट जैसा कुछ नहीं था साथ,
पर इस बार कुछ अलग था।
इस बार गुम था कहीं उनका
हरदम तना और दो टूक बातें करनेवाला,
सदा एक अनुशासन की अपेक्षा करता
कठोर चेहरा,
आज थी तो
उनके चेहरे पर एक हंसी
आंखों में चमक और
हमसे मिलने की बेकरारी।
क्या लाऊं तुम्हारे लिये ?
जाते वक्त इस बार भी
पूछा था उन्होंने हमसे, हमेशा की तरह
पर इस बार हिम्मत करके
हमने कह दिया था
"हो सके तो लौटकर आना,
थोड़ा कम कठोर, ज्यादा समन्वयी
कम पितृ-सत्तात्मक, ज्यादा दोस्ताना
कम तानाशाह, ज्यादा लोकतांत्रिक
कम आदेशात्मक, ज्यादा संवेदनशील
पापा बनकर और मिल सके
तो खरीद लाना थोड़ा सा
सम्मान और ढेर सारा प्यार
हमारी मम्मी के लिये,
हम जानते हैं ये चीजें बाज़ार में नहीं मिलतीं
पर कोशिश कर के देखना हमारे लिये"।
घर के बाहर ही अपना पुराना सफ़री सूटकेस
जमीन पर रख हमें पास बुला
बाहों में समेट लिया कस कर
फिर बोले, "अच्छा ज़रा हटो तुम लोग
अब तुम्हारी मम्मी की बारी है"।
हमारे सामने ही उन्हें सीने से लगा कर बोले
“बहुत याद आयी तुम्हारी”
हमने देखा आंखों के साथ आवाज़ भी
भीगी हुयी थी, पापा की।
पापा ने इस बार भी
मांग पूरी कर दी थी हमारी।