एक बैंकर का प्रेम पत्र
एक बैंकर का प्रेम पत्र
तुम गाँव में रहती थी, पढ़ने में तेज़,
मैं भी उसी गाँव से था और शहर में रहता था,
तेरे सपनों का मान रख तेरे पिता ने,
इजाज़त दे दी उन्हें पूरा करने की।
और मेरे भरोसे पर शहर भेज दी गयी तुम,
थोड़ा वक़्त भी न गुज़रा था कि,
तुम्हें हवा लग गयी शहर की,
पुराने सपने नई शक्लें अख़्तियार करने लगे।
देख रहा हूँ आजकल,
तुम्हारे कपड़ों की बढ़ती पारदर्शिता और,
डिज़ाइनर-आउट्फिट्स में लगाये गये टेलर-मेड कट्स से,
झांकते तेरे अंगों की ‘पूर्वानुमेयता’।
मेरे मन में ‘मुद्रा’ की तरह,
तेरे ‘मूल्य’ को लेकर,
एक संशय की स्थिति निर्मित कर रही है।
आसान है मेरे लिये, छोड़ दूं तुझे तेरे हाल पर,
पर तेरे पिता की इच्छा थी मैं रहूँ,
‘रिज़र्व-बैंक’ की तरह, सदा तेरे संग,
जिसका काम ही होता है हर हाल में-
‘मौद्रिक-स्थिरता’ को क़ायम रखना,
ताकि आवाम में ‘देश की मुद्रा’ को लेकर,
एक भरोसा कायम
रहे।
यूँ भी अब तक के सारे खर्चे, मैंने ही उठाये है तेरे,
खुद को सजाया है तूने मुझसे ही उधार ले के,
पर याद रख ‘वित्त-पोषित’ होने का मतलब,
सिर्फ़ उधार पाना नहीं होता इसका सम्बंध।
‘कर्ज़ वापसी’ की आश्वस्ति से भी होता है,
खासतौर पर आज जब तू,
अनिश्चितता के ऐसे दौर से गुज़र रही है,
मुझे सोचना होगा कि इससे पहले की मुझसे दूर छिटक-
तू मेरे लिये एक ‘गैर-निष्पादित-परिसंपत्ति’ बन जाये,
मुझ जैसे (बैंक) को ये हक़ है कि,
तेरी ‘मूल्यवान-संपत्तियों’ पर अधिकार जमा लूँ अपना।
यूँ भी ये बैंकों की नियमावली में होता है कि,
जिन परि-सम्पत्तियों को बनाये रखने में,
तुलनात्मक रुप से कोई लाभ न हो,
उनका ‘परिसमापन’ कर दिया जाना चाहिये।
वैसे भी मैं उन लोगों की तरह नहीं,
जो अपनी कहानियाँ और अपना रोना,
खुद को सुनाने के लिये अभिषप्त होते हैं,
इसलिये सोच ले और इसे मेरा आखिरी नोटिस मान ले।