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Ravikant Raut

Drama

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Ravikant Raut

Drama

तज़ुर्बा

तज़ुर्बा

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माथे पर किसी के,

उभरती शिक़न देख कर,

कभी किसी के चेहरे की,

बदलती रंगत देख कर।


कौन, कब,

उखड़ने वाला है हत्थे से,

पहले से भाँप जाता हूँ,

कि एकाएक चुप लगा जाता हूँ।


उम्र भर कदमताल करती,

नाक़ामियों और,

रास्ते की ठोकरों ने,

इतना तो तज़ुर्बा,

दे ही दिया है मुझे।


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