जख्मों का रंग
जख्मों का रंग
पता है तुम्हें
जब से इस घर में आई
तब से इसे अपना माना
अपने घर की तरह
मैंने इसे सजाया
हर एक कोने को
अपने दिल की तरह बसाया
तुम्हारे माँ-बाप को अपना मान
उन पर प्यार और सम्मान बरसाया
तुम्हारे गुस्से को
अपने प्यार से कम किया
तुम्हारे अहम को
अपने समर्पण से दबाया
मैं तुम्हें भगवान बना
तुम्हारी पूजा करती रही
तुम मुझे मार-पीट कर
अपनी दासी समझते रहे
अपने माँ-बाप का सोचकर
जहर का प्याला पीती रही
अपने सम्मान का न सोचकर
तुम्हारे लिए आदर समेटती रही
पर किसी चीज को
आप ज्यादा देर तक
बांध कर नहीं रख सकते
वो किसी भी समय
उस दायरे को तोड़कर
उछाल मार चली जाती है
जब तुमने मुझे
तलाक के कागज़ दिए
मेरे अंदर भी ऐसा ही
एक सैलाब उठा था
पर मैंने कभी उसे
जाहिर नहीं होने दिया
क्योंकि शायद तुम उसे
ही तो तोड़ना चाहते थे
मगर देखो न
आज मैं कितनी खुश हूँ
मैं ही अब मेरी
बेटी का गुरुर हूँ
माना मैंने उसे
जन्म नहीं दिया
पर उसने मेरे अंदर
ममता को जगा दिया
जिसका गला तुम
हमेशा घोंट दिया करते थे
सुनो, पर मैं तुमसे
नफरत नहीं करती
मगर मोहब्बत भी
नहीं करती अब तुमसे
क्योंकि तुम इस लायक
थे ही नहीं कभी
ये पत्र इसलिए
नहीं लिख रही
कि ताकि तुम
पढ़ सको
रख सकूँ संभाल
उन जज्बातों को
जो 5 साल से कैद थे
तुम्हारे दिए सितम से
भेजूँगी नहीं इसे तुम्हें
कि तुम इसे पढ़ सको
कहीं तुम गिर न जाओ
अपने ही नजरों में
तुम अपनी बेबुनियाद
दुनियाँ में खुश रहो
हमारी दस साल की
शादीशुदा जिंदगी में
हर रंग देखे तुम्हारे
वही रंग देखना चाहती थी
अपने जख्मों का
कि हरे है या भर गए
इस पत्र को लिखकर
मगर जब भी
अपनी बेटी की
मुस्कान देखती हूँ
हर दर्द, हर जख्म
मैं भूल जाती हूँ
आखिरी मैं कहना चाहूँगी
न ही मुझे तुम्हारी
याद आती है
न नारी अबला होती है
और न ही औरत
लाचार होती है।