महाभारत प्रसंग
महाभारत प्रसंग
बोली पाँचाली हे केशव
शांतिदूत बन जा रहे हो
सखा मेरे होने का तुम
ये दायित्व निभा रहे हो ?
मंद मंद मुस्काये केशव
देख यूँ द्रोपदी कि ओर
मानो अंबर नाप रहा हो
नैनों से धरती का छोर
झटक दिए केश द्रौपदी
देख केशव कि मुस्कान
कब तक रखूँ खुले इन्हें
उत्तर दो बस हे भगवान
मौन तोड़ बोले माधव
बन्द करो अपना प्रलाप
पर्याय युद्ध का है क्या
क्या नहीं ये तुम्हें ज्ञात
युद्ध होगा महा विध्वंस
धरा अम्बर डोल जाएंगे
लहू सनी धरा का बोझ
क्या केश तुम्हारे उठाएंगे
परस्पर निज स्वार्थ समीप
तुम सखी न आया करो
धर्म अधर्म युद्ध के बीच
केश न अपने लाया करो
मौन क्षणिक हो कहे द्रौपदी
मस्तिष्क अब संकुचित है
युद्ध होगा महा विध्वंस
तर्क ये आपका उचित है
दिवस जब बनी महारानी
निज स्वार्थ बैरागी हूँ
कैसे भूलूँ कर्तव्य अपना
स्वयं जब मैं साम्राज्ञी हूँ
उद्दंड क्रूर उस पापी ने
पावन इन केशों को छुआ है
अपमान केवल मेरा नहीं
पूरी नारी जाति का हुआ है
हाँ हाँ ये युद्ध विध्वंस है
पर अपमान स्वीकार नहीं
मौन रहे नारी अपमान पर
जीवन उनका अधिकार नहीं
अन्ततः हे अंतर्यामी
विनती इतनी करती हूँ
युद्ध होगा कि नहीं
प्रश्न यही बस धरति हूँ
मुस्कुराकर बोले माधव
नहीं अनभिज्ञ इस व्यथा से
भली भांति परिचित हूँ
सखी तुम्हारी मनोदशा से
अवश्य हूँ सखा तुम्हारा
भूमिका इक निभा रहा हूँ
कैसे कह दूँ कि युद्घ होगा
जब शांतिदूत बन जा रहा हूँ
पक्षपात करते नहीं हैं
कर्म न्यायधीश प्रधान है
लेखा जोखा सबका है
यही विधि का विधान है
निज पापों कि अग्नि में
स्वयं को ही वे झोंकेंगे
पांडव हो या कौरव सखी
कर्मों का फल भोगेंगे
क्षत्रिय भटके हैं मार्ग
उचित है तुम्हारा विचार
परंतु युद्ध विकल्प है
बन्द हो जब सभी द्वार
अंततः
केशव देते सीख मानव
लाओ इसे तुम व्यवहार
विनाश सदैव विकल्प है
प्रथम खटकाओ सभी द्वार...!