।। हुनर ।।
।। हुनर ।।
जिस हुनर को मैं ले के संजीदा था,
उस हुनर पे मुझे लोग आंकते कम थे,
जो खुलती थी खिड़कियाँ, दिल के आंगन में,
उसमें न जाने क्यों लोग झांकते कम थे।।
यूं तो बेपरवाह रहा हूँ मैं उम्रभर,
जमाने की इस फुसफुसाहट से,
न जाने फिर क्यों उन दिनों शायद,
उनको लेकर बड़े बेसाख्ता से हम थे।।
उम्र गुजरी थी तमाम बस अपनी शर्तों पर,
न कभी वक़्त से थका न लिया दम था,
उठा हूँ थाम हर बार दामन मैं परेशानी का,
तूने दिया है सहारा ये बस तेरा भरम था।।
