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ca. Ratan Kumar Agarwala

Inspirational

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ca. Ratan Kumar Agarwala

Inspirational

ये सूने हो रहे घर

ये सूने हो रहे घर

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ये सूना पड़ा हुआ घर, घर का खाली पड़ा अहाता,

न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर, अजीब सा सन्नाटा।

न चिड़ियों की चहचहाहट, धूल मिट्टी से अटे हुए,

बीत गये महीनों बरामदे की सफाई हुए।

जगह जगह बड़े बड़े चूहों के बिल, भरे हैं कौवे और चील,

बस यही बन गया इस जैसे अनेकों घरों का मुस्तकबिल।

 

इन घरों में रहते हैं कुछ बुजुर्ग उम्र की दहलीज पार कर,

जो ताकते रहते हैं कभी कभार, खिड़की दरवाजे से बाहर,

आते जाते हुए चंद लोगों को, अतीत का साया ओढ़े हुए,

कुछ तलाशते हुए, किसी अपने की बाट जोहते हुए,

एक अजीब सी ख़ामोशी, एक अजीब सा सूनापन,

खुद का भी होश नहीं, बस खोजते रहते हैं अपनापन।

 

एक वक़्त था जब इन घरों के आँगन में था सुकून,

बच्चों का शोर था, और था अहसासों का तरन्नुम।

संयुक्त परिवार थे, बच्चे कब बड़े हुए पता ही नहीं चलता,

फिर एकल परिवार हुए, बदला अपनों का अपनों से नाता।

बच्चों का बचपन खो गया, बुजुर्गों का मान खो गया,

अपनों से नाता टूट गया, स्वार्थ ही सर्वथा हो गया।

 

बच्चों को भेज दिया बड़े शहरों में, देनी थी उच्च शिक्षा,

बिखरने लगे परिवार, संस्कारों की होने लगी अग्निपरीक्षा।

बचपन बीतने लगा शहरों में, गाँव अपने नहीं रहे,

शहरों की आबादी बढ़ती गई, गाँव घर सूने हो रहे,

बड़े बुजुर्ग रह गये, उम्र का लबादा ओढ़ते चले गये,

कोई संभालने वाला न रहा, खुद का वजूद ही खोते गये।

 

कहाँ तक ले जाएगा समाज को, भौतिकवाद का ये असुर,

शिक्षा और कैरियर की लालसा, ले जाती अपनों को दूर,

पढ़ लिख कर बच्चे हो जाते शहरों के, घर से होते दूर,

तौर तरीके सभी बदलते गये, मिटा अपनेपन का नूर,

शहर में नौकरी मिल गई, डब्बे जैसे फ्लैट हो गये,

शहर में ही शादी हो गई, मियाँ बीवी वहीं सेट हो गये।

 

अब गाँव के पुश्तैनी मकान में, दिख जाते दो वृद्ध अकसर,

पड़ने लगी अब उस पर, बच्चों की गिद्ध जैसी नज़र।

समझाते हैं माँ बाप को, बेच दो ये गाँव का घर,

हम तो हैं ही शहर में, फिर आप दोनों को क्या डर?

क्या रखा है इस छोटे गाँव शहर में, चलो बेच दें घर को,

चलें आप बड़े शहर संग हमारे, छोड़ कर इस छोटे शहर को।

 

जिस घर गाँव में बीता था बचपन, वह घर अब नहीं भाता,

अपनेपन से जुदा हो गया कबका, इस घर का सूना अहाता।

घर खाली, मोहल्ला खाली, और गाँव भी हो गया खाली,

माँ बाप बच्चों से डरने लगे, रो रही है ममता की प्याली।

नहीं मनाता कोई होली अब तो, और न ही मनाता दीवाली,

किस संग कोई मनाये त्यौहार, सब कुछ हुआ जब खाली।

 

कहता हूँ आज की इस पीढ़ी से, संभालो वो पुश्तैनी मकान,

घर बना दो मकान को फिर, न भूलो आप अपनी पहचान।

ईंट गारे का ढांचा नहीं सिर्फ, बीता है वहाँ पूरा बचपन,

जिस घर ने आप को पाला पोषा, लौटा दो उसका स्पन्दन।

दे दो अपने बड़ों को सहारा, उनके कंधों को न झुकने दो,

बरसा दो अपनेपन की बारिश, जिन्दगी को न रुकने दो।



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